Some beautiful shlokas

 कर्मण्यकर्म य: पश्येदकर्मणि च कर्म य:। स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्त: कृत्स्नकर्मकृत्।। 


अर्थ- जो मनुष्य कर्ममें अकर्म देखता है और जो अकर्ममें कर्म देखता है, वह मनुष्योंमें बुद्धिमान् है, वह योगी है और सम्पूर्ण कर्मोंको करनेवाला (अर्थात् कृतकृत्य) है।



"दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता। अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः॥

" अर्थात - "दान देने की आदत, प्रिय बोलना, धीरज तथा उचित ज्ञान - ये चार व्यक्ति के सहज गुण हैं; जो अभ्यास से नहीं आते ।"


"आक्रोशपरिवादाभ्यां विहिंसन्त्यबुधा बुधान्। वक्ता पापमुपादत्ते क्षममाणो विमुच्यते॥

" अर्थात- "मूर्ख व्यक्ति ज्ञानियों को बुरा-भला कहकर उन्हें दुःख पहुँचाते हैं । इस पर भी ज्ञानीजन उन्हें क्षमा कर देते हैं । क्षमा करने वाला तो पाप से मुक़्त हो जाता है परंतु निंदक को पाप लगता है ।"


"न देवा दण्डमादाय रक्षन्ति पशुपालवत । यं तु रक्षितमिच्छन्ति बुद्धया संविभजन्ति तम् ।।"

 अर्थात - "देवता पशुपालकों की भांति डंडा लेकर पहरा नहीं देते । उन्हें जिसकी रक्षा करनी होती है, उसे वे सद्बुद्धि प्रदान कर देते हैं ।"



"आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः । 

परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ॥"

अर्थात - "इस जीवलोक में स्वयं के लिए कौन नहीं जीता ? परंतु जो परोपकार के लिए जीता है, वही सच्चा जीवन जीता है ।"


दो० - माया ईस न आपु कहुँ जान कहिअ सो जीव। बंध मोच्छ प्रद सर्बपर माया प्रेरक सीव॥ 

 जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए। जो (कर्मानुसार) बंधन और मोक्ष देनेवाला, सबसे परे और माया का प्रेरक है, वह ईश्वर है॥



"पात्रे त्यागी गुणे रागी भागी परिजनैः सह । शास्त्रे बोद्धा रणे योद्धा प्रभुः पञ्चगुणो भवेत् ॥" 


अर्थात - "नायक (महापुरुष) के पाँच गुण होते हैं – त्यागी, गुणों के लिए अनुराग, बंधुओं को समभाग देना, शास्त्रज्ञ, और पराक्रम ।"



"मृगमीनसज्जनानां तृणजलसंतोषविहितवृत्तीनां । लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति॥"

 अर्थात-"जैसे घास खाकर खुश रहने वाले हिरण या जल में प्रसन्न रहने वाली मछली से शिकारी/मछुआरा अकारण घृणा करते हैं, वैसे ही सज्जन भी अपने आप में संतुष्ट रहते हैं परंतु दुष्ट उनसे अकारण घृणा करते हैं।"



"क्रोधो वैवस्वतो राजा तॄष्णा वैतरणी नदी । विद्या कामदुघा धेनु सन्तोषो नन्दनं वनम् ॥

" अर्थात - "क्रोध यमराज के समान है और तृष्णा नरक की वैतरणी नदी के समान । विद्या सभी इच्छाओं को पूर्ण करने वाली कामधेनु है और संतोष स्वर्ग का नंदन वन है ।"



नास्ति सत्यसमो धर्मः। 

अर्थात:सत्य के बराबर कोई दूसरा धर्म नहीं।

बुद्धिः कर्मानुसारिणी। 

अर्थात बुद्धि कर्म का अनुसरण करती है। 

बुद्धिर्यस्य बलं तस्य।

 बुद्धि तलवार से अधिक शक्तिशाली है।



"स्वभावं न जहात्येव साधुरापद्गतोऽपि सन् ।

कर्पूर: पावकस्पृष्ट: सौरभं लभतेतराम् ॥"


अर्थात - "अच्छा व्यक्ति आपातकाल में भी अपना मूल स्वभाव नहीं छोड़ता है, कर्पूर अग्नि के स्पर्श से भी अधिक सुगंध का ही निर्माण करता है ।"




"मूर्खस्य पञ्च चिह्नानि गर्वो दुर्वचनं तथा ।

क्रोधश्च दृढवादश्च परवाक्येष्वनादरः ।।"


अर्थात - "एक मूर्ख के पांच लक्षण होते हैं घमण्ड, दुष्ट वार्तालाप, क्रोध, जिद्दी तर्क और अन्य लोगों के लिए सम्मान में कमी ।"

"सदयं हृदयं यस्य भाषितं सत्यभूषितम् ।

कायं परहितं यस्य कलिस्तस्य करोति किम् ॥"


अर्थात - "जिसके हृदय में दया है, जिसकी वाणी में सत्य है, जिसके कार्य भी दूसरों के हित के लिए है, उसका काल (मृत्यु) भी क्या कर सकेगा अर्थात् ऐसे व्यक्ति को मृत्यु का भी भय नही होता ।"



"सत्यमेव परं मित्रं स्वीकृते सति मानवे। सत्यमेव परं शत्रुः धिक्कृते सति मानवे।।"


 अर्थात - "यदि हम सत्य को स्वीकार करते हैं तो वह हमारा सबसे श्रेष्ठ मित्र बन जाता है। परंतु यदि हम सत्य का स्वीकार न करके धिक्कारते हैं, तो जीवन में आगे चलकर वही सत्य हमारे लिए परम शत्रु बन जाता है।"



"न मुक्ताभि र्न माणिक्यैः न वस्त्रै र्न परिच्छदैः ।

अलङ्कियेत शीलेन केवलेन हि मानवः ॥"


अर्थात - "मोती, माणेक, वस्त्र या पहनावे से नहीं, परंतु केवल शील से ही व्यक्ति विभूषित होता है ।"



"अन्तो नास्ति पिपासायाः सन्तोषः परमं सुखम् । तस्मात्सन्तोषमेवेह परं पश्यन्ति पण्डिताः ॥" 

अर्थात - "तृष्णा अनंत है, और संतोष परम् सुख है । इस लिए विद्वज्जन संतोष को ही इस संसार में श्रेष्ठ समझते हैं ।" 


(महाभारत, वनपर्व, 2-31)



"उदयेति सविता ताम्र:, ताम्रश्चैव अस्तमयेति च। सम्पत्तौ च विपत्तौ, महताम् एकरूपता।।" 

अर्थात - "जैसे सूर्यदेव प्रात: काल उदय होते समय और सायंकाल अस्त होते समय एक समान लाल रंग के दिखते हैं । उसी प्रकार महान पुरूष भी अच्छे और बुरे समय में एक समान ही दिखते हैं |




"अकॄत्यं नैव कर्तव्य प्राणत्यागेऽपि संस्थिते। 

न च कॄत्यं परित्याज्यम एष धर्म: सनातन:॥"

अर्थात-"जो कार्य करने योग्य नही हैं, उन्हें प्राण देकर भी नही करना चाहिए तथा जो कर्तव्य निर्धारित हैं उनके लिए यदि प्राण भी देना पड़े तो भी करना चाहिए, यही सनातन धर्म है।"


"उभाभ्यामेव पक्षाभ्यां शथा खे पक्षिणां गति: ।

तथैव ज्ञानकर्मभ्यां जायते परमं पदम् ॥" अर्थात - "जिस प्रकार दो पंखों के आधार पर पक्षी आकाश में उंचा उड़ सकता है, उसी प्रकार ज्ञान तथा कर्म से मनुष्य परब्रह्म को प्राप्त कर सकता है ।"


"परनिन्दासु पाण्डित्यं, स्वेषु कार्येष्वनुद्यमः। प्रद्वेषश्च गुणज्ञेषु, पन्थानो ह्यपदां त्रयः।।" अर्थात - "दूसरों की निंदा करने में निपुणता, अपने काम में आलस्य, गुणी व्यक्तियों से द्वेष, ये तीनों ही आपत्ति के मार्ग हैं ।"


"शुभकार्ये विलम्बः स्यात् नाशुभे तु कदाचन ।

विलम्बो जायते गेहनिर्माणे न तु पातने ॥"

अर्थात - "शुभ कार्यों में विलंब होता है, अशुभ कार्यों में कभी विलंब नहीं होता । घर बांधने (निर्माण) में अत्यंत समय (तथा परिश्रम) लगता है, परंतु उसे गिराने में नहीं लगता ।"


"रोगी चिरप्रवासी परान्न भोजी परावसथशायी ।

यज्जीवति तन्मरणं यन्मरणं सोऽस्य विश्रामः ॥"

अर्थात - "रोगी, नित्य प्रवासी, पराया खानेवाला और पराये घर सोनेवाला, इन सबका जीना मरणतुल्य है; और मृत्यु उनका विश्राम है।"


"प्रभूतं कार्यमपि वा तत्परः प्रकर्तुमिच्छति । सर्वारम्भेण तत्कार्यं सिंहादेकं प्रचक्षते ॥"

अर्थात - "जो भी कार्य करना चाहिए, उसमें एक सिंह की भांति अपनी पूरी शक्ति लगा देनी चाहिए। सिंह किसी शिकार में असफल होने पर भी निराश नहीं होता और अगले शिकार हेतु भी पूर्ण उर्जा लगा देता है।"


"बुधाग्रे न गुणान् ब्रूयात् साधु वेत्ति यत: स्वयम्।

मूर्खाग्रेपि च न ब्राूयाद्धुधप्रोक्तं न वेत्ति स: ।।"

अर्थात - "अपने गुण बुद्धिमान मनुष्य को न बताएं, वह उन्हें स्वतः जान लेगा । अपने गुण मूर्ख मनुष्य को भी न बताएं, वह उन्हें समझ नहीं सकेगा ।"


सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ||

भावार्थ:श्रीकृष्ण के द्वारा अर्जुन से कहा जा रहा है, हे अर्जुन तुम सफलता और असफलता की बिल्कुल भी चिंता ना करो बल्कि इसकी चिंता को छोड़कर के तुम समर्पित भाव से समभाव हो जाओ और अपने कर्म का पालन करो।इसे ही समता की भावना योग कहा जाएगा


"दानं प्रियवाक्सहितं ज्ञानमगर्वं क्षमान्वितं शौर्यम् ।

वित्तं दानसमेतं दुर्लभमेतत् चतुष्टयम् ॥"

अर्थात - "प्रिय वचन सहित दिया हुआ दान, गर्वरहित ज्ञान, क्षमायुक्त शौर्य, और दान की इच्छावाला धन – ये चार दुर्लभ हैं ।"


"उपदेशो हि मूर्खाणां प्रकोपाय न शान्तये।

पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्धनम्।।"

अर्थात - "मूर्खों को दिया गया उपदेश उनके क्रोध को शांत न करके और बढ़ाता ही है । जैसे सर्पों को दूध पिलाने से उनका विष ही बढ़ता है ।"


"रत्नैर्महार्हैस्तुतुषुर्न देवाः न भेजिरे भीमविषेण भीतिं।

सुधां विना न प्रययुर्विरामम् न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः॥"

अर्थात - "मूल्यवान रत्नों से देव संतुष्ट न हुए, भयंकर विष से डरे नहीं; वे अमृत मिलने तक डँटे रहे। उसी प्रकार, धीर पुरूष निश्चित किए कार्यों से पीछे नहीं हटते।"


"वहेदमित्रं स्कन्धेन यावत्कालविपर्यय:। अथैवमागते काले भिन्द्याद् घटमिवाश्मनि।।"

अर्थात - "जब काल विपरीत हो, तब शत्रु को भी कन्धों पर उठाना पड़ सकता है । अनुकूल काल आने पर जैसे घट पत्थर पर फोड़ा जाता है, उसके प्रभाव को उसी प्रकार नष्ट करने का यत्न करना चाहिए ।"


"अनन्तशास्त्रं बहुलाश्च विद्या अल्पं च कालो बहुविघ्नता च।

आसारभूतं तदुपासनीयं हंसो यथा क्षीरमिवाम्बुमध्यात्॥"

अर्थात-"शास्त्र/विद्याएं अनेक हैं, विघ्नों से भरा जीवन अल्प है। जैसे हंस मिश्रित दूध/जल में से दूध पी लेता है परंतु जल नहीं, वैसे ही काम की बातें ग्रहण कर शेष छोड़ दो।"


"दूरतः शोभते मूर्खो लम्बशाटपटावृतः।

तावच्च शोभते मूर्खो यावत्किञ्चिन्न भाषते ।।"

अर्थात - "एक मूर्ख व्यक्ति महँगे वस्त्र पहनकर दूर से भले ही ज्ञानवान प्रतीत होता है, परंतु जब किसी विषय पर वह अपना मुख खोलता है तब उसकी अज्ञानता निश्चित ही प्रकट हो जाती है ।"


"दयाहीनं निष्फलं स्यान्नास्ति धर्मस्तु तत्र हि ।

एते वेदा अवेदाः स्यु र्दया यत्र न विद्यते ।।"

अर्थात - "बिना दया के किए गए कार्य में कोई फल नहीं मिलता । जहां दया नहीं होती वैसे कार्य में धर्म नहीं होता । वहां वेद भी अवेद बन जाते हैं ।"


"एवं च ते निश्चयमेतु बुद्धिर्दृष्ट्वा विचित्रं जगतः प्रचारम्।

सन्तापहेतुर्न सुतो न बन्धुरज्ञाननैमित्तिक एष तापः॥"

अर्थात - "संसार की विचित्र गति को देखकर बुद्धि से निश्चित समझना चाहिए कि मनुष्य के मानसिक कष्ट का कारण पुत्र/बंधु नहीं हैं; दुःख का वास्तविक निमित्त तो अज्ञान है ।"


"यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्तवा वसेत्सुखम्॥"

अर्थात- "जिसे किसी के प्रति प्रेम होता है उसे उसी से भय भी होता है, प्रीति दुःखो का आधार है। स्नेह ही सारे दुःखो का मूल है, अतः स्नेह- बन्धनों को तोड़कर सुखपूर्वक रहना चाहिए।"


"मध्विव मन्यते बालो यावत् पापं न पच्यते ।

यदा च पच्यते पापं दु:खं चाथ निगच्छति ।।"

अर्थात - "जब तक पाप संपूर्ण रूप से फलित नही होता तब तक वह पाप कर्म मधुर लगता है । परन्तु पूर्णत: फलित होने के पश्चात मनुष्य को उसके कटु परिणाम सहन करने ही पड़ते हैं ।"


"दानं भोगं नाशस्तिस्रो गतयो भवन्ति वित्तस्य।

यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतिया गतिर्भवति॥"

अर्थात - "धन की संभव नियति तीन प्रकार की ही होती है । प्रथम है उसका दान, द्वितीय है उसका भोग, और तृतीय है उसका नाश । दान अथवा भोग नहीं करने पर उसका नाश सुनिश्चित है ।"


"यथा भूमिः तथा तोयं, यथा बीजं तथाङ्कुरः। यथा देशः तथा भाषा, यथा राजा तथा प्रजा॥" अर्थात - "जैसी भूमि होती है, वैसा ही जल होता है। जैसा बीज होता है, वैसा ही अंकुर होता है। जैसा देश होता है, वहाँ के निवासियों की वैसी ही भाषा होती है। जैसा राजा होता है, प्रजा भी वैसी ही होती है।"


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