वो रह गई अंदर ही हमेशा के लिए
वो दिन भी कुछ वैसा ही था
घर से निकली थी दफ्तर के लिए
बचपन का सपना था
एक नौकरी करनी थी
सब कुछ वैसा ही था
वही सड़कें रोज की तरह
रास्ते में राहगीर
नज़रो से गुज़र रहे थे
काम शुरू
दिन बीत रहा था
शाम हुई
सब चले गये
वो रही
उसे काम पूरा करना था
आख़िर कैसा डर
यहाँ तो सब अपने थे
लिबास तो लिबास है
चेहरा तो चेहरा है
इतना भी सच कहां बोलता है
कोई अंदर आया कमरे में
फिर वापस भी गया
लेके किसी की उम्मीद और भरोसा
वो रह गई अंदर ही हमेशा के लिए
अब कभी नहीं उठ पायेगी
कमरे में कुछ बदल गया है अब
वहां भावनाविहिं टूटे हुए अस्थियों की एक संरचना
जहां कभी मुस्कुराती हुई कोई रहती थी गुड़िया...
रूपेश रंजन
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