क्या जिंदगी इतनी जरूरी भी है
क्या जिंदगी इतनी जरूरी भी है
कि हम दरिंदा बन जाये
मौत के आगोश में क्यू न समा जाए
अगर जिंदा रहते हुए भी इंसान न रह जाए
क्या तहजीब और क्या तरीक़ा
शायद मर गया है इंसानों के बीच जीने का सलीका
इंसान कहलाने लायक भी काबिल न रह जाये
नोच रहे हैं
खसोट रहे हैं
ऐसा भी क्या है
लाशों को खा रहे हैं
खून चाहिए
बस खून
इंसानी लहू से सुकून
मौत एक तमाशा है उनके लिए
जिस्म से खेलने का शौक जो है
रूहों का मरता देख जीते हैं वो
कैसे इंसानों के बीच रहते हैं
माँ तो उनकी भी होगी
कितनी बार मरती होगी
खुदा तो उनका भी होगा
देख कर वो भी हैरत में होगा
वो चली गई
मैं बच गयी
वो नहीं जाती
तो मैं चली जाती
कोई तो जाती ही
मैं शायद चली जाती
तो वो बच जाती
किसे दोष दू
खुद को या उसे
दर्द तो होता है सोच सोच कर
पर उसके दर्द के क्या...
रूपेश रंजन
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