मानव स्वभाव और ऋतु परिवर्तन

जैसे पतझड़ में पेड़ झड़ते हैं पत्ते,

वैसे ही मनुष्य का भी बदलता है मत्ते।

हर ऋतु में जैसे नया रंग आता है,

वैसे ही जीवन का हर क्षण नया रूप पाता है।


बसंत में जब फूलों की महक बिखरती,

मन में उमंगों की नई लौ सी सुलगती।

जीवन के सपने खिलते और मुस्काते,

नए अरमानों से दिल को महकाते।


गर्मी की तपन जब धरा पर छाती,

संघर्ष की आंच में ज़िंदगी जलती जाती।

पर इसी तपिश में मिलता है नया जोश,

जैसे धरती को बारिश का रहता है दोष।


बरसात में जब धरती नहाने लगती,

अंदर की ठंडक फिर से जागने लगती।

भूली-बिसरी यादें जैसे दिल में उतरें,

भीगी राहों में नए रास्ते निखरें।


सर्दियों में जैसे सर्द हवाएं चलतीं,

वैसे ही मन के भाव भी ठंडे पड़ते।

शांत हो जाती हैं चंचल इच्छाएँ,

अंदर की गहराई में समा जातीं संभावनाएँ।


इस तरह ऋतु के संग चलता है मन,

हर बदलाव में है जीवन का स्पंदन।

जैसे ऋतु का चक्र घूमता रहे,

वैसे ही मानव भी नित्य नया बने।



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