इर्ष्या

 इर्ष्या


कभी सोचूँ, कैसी ये चाहत है,

जो धरती पर बरसता है आसमान।

मिट्टी के संग यूँ बंधा ये बादल,

मैं देखूँ दूर से, बस अजान।


काले बादलों की बाहों में लिपटी,

धरती यूँ मुस्कुराती है, भीगती है।

बूंदें उसके आँचल में उतरती हैं,

और मैं ईर्ष्या में जलती हूँ, सिहरती हूँ।


बारिश का हर कण उसकी प्यास बुझाए,

हर बूंद में उसका नाम आए।

मैं यहाँ खड़ी, सूखी और अकेली,

धरती की इस रुत से अनजानी, बेचारी।


क्यों न मैं भी बन जाऊँ ज़मीं,

कि बादल मुझ पर भी यूँ बरसे।

पर शायद ये प्रेम उसका हक़ है,

और मैं परछाई में तड़पती ही रहूँ।


धरती के हर सूखे जख़्म पर,

वो प्यार की फुहार बरसाए।

और मैं जल कर सोचूँ यही,

काश मेरे हिस्से भी ये इश्क़ आए।



Comments