धोखे का सफर
धोखे का सफर
शाम का समय था। मैं एक जरूरी काम के सिलसिले में यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहा था। अपने भारी बैग में मैंने अपने सबसे कीमती सामान रखे: मेरा लैपटॉप, टैबलेट, कपड़े और कुछ अन्य जरूरी चीजें। ये सामान केवल महंगे ही नहीं थे, बल्कि मेरे जीवन के लिए भी महत्वपूर्ण थे।
मेरे पिताजी, हमेशा की तरह, मुझे स्टेशन तक छोड़ने पर अड़े थे। "सुरक्षा सबसे जरूरी है," उन्होंने कहा, जब उन्होंने बैग कार में रखा। रास्ते भर उन्होंने अपनी आदत के मुताबिक समझाया, "अपने सामान का ध्यान रखना, किसी पर ज्यादा भरोसा मत करना, और हमेशा सतर्क रहना।"
जब हम रेलवे स्टेशन पहुंचे, तो वहां का शोरगुल और भीड़भाड़ अलग ही नजारा पेश कर रहे थे। कुली सामान उठा रहे थे, दुकानदार आवाज लगा रहे थे, और यात्री इधर-उधर भाग रहे थे। पिताजी ने मेरा बैग प्लेटफॉर्म तक पहुंचाने में मदद की। जैसे ही ट्रेन के आने की घोषणा हुई, उन्होंने मुझे गले लगाया और कहा, "सावधान रहना।"
मैंने ट्रेन में चढ़कर अपनी सीट ढूंढी और बैग को नीचे ठीक से रख दिया। थोड़ी देर बाद, मेरे सामने की सीट पर एक युवक आकर बैठा। उसने अपना परिचय रमेश के रूप में दिया और बताया कि वह भी उसी शहर जा रहा है जहां मुझे जाना था। उसका दोस्ताना अंदाज और मुस्कान उसे भरोसेमंद बना रहे थे।
हम दोनों ने बातचीत शुरू की। उसने अपने परिवार, काम और यात्रा के अनुभवों के बारे में बताया। हमारी बातें इतनी दिलचस्प थीं कि समय कैसे बीत गया, पता ही नहीं चला।
रात के करीब बारह बजे, मुझे वॉशरूम जाने की जरूरत महसूस हुई। मैं उठा और अपने बैग की ओर देखा। थोड़ा झिझकते हुए मैंने रमेश की ओर देखा। उसने मुस्कुराते हुए कहा, "चिंता मत करो, मैं तुम्हारे सामान का ख्याल रखूंगा।"
मैंने उस पर भरोसा किया और धन्यवाद कहते हुए वॉशरूम की ओर बढ़ गया। वॉशरूम से लौटते हुए ट्रेन की खामोशी और हिलती-डुलती चाल मुझे सुकून दे रही थी। लेकिन जैसे ही मैं अपनी सीट पर पहुंचा, मेरे पैरों तले जमीन खिसक गई।
मेरी सीट खाली थी। न रमेश वहां था और न ही मेरा बैग।
पहले तो मुझे लगा कि शायद वह कहीं आसपास गया होगा। लेकिन जब मैंने पूरे डिब्बे में उसे खोजा और पड़ोस के यात्रियों से पूछा, तो मेरी आशंका सच हो गई। वह मुझे धोखा देकर गायब हो चुका था।
घबराहट में, मैं दूसरे डिब्बों में गया, हर सीट और हर कोने में उसे खोजा, लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिला। जब ट्रेन अगले स्टेशन पर रुकी, तो मैं प्लेटफॉर्म पर उतरा और हर जगह उसे ढूंढा। लेकिन उसका कोई पता नहीं चला।
मैंने स्टेशन स्टाफ से मदद मांगी, लेकिन उनकी प्रतिक्रिया ठंडी और निराशाजनक थी। किसी ने कहा, "यह आम बात है। आपको अपने सामान का ध्यान रखना चाहिए था।" उन्होंने मुझे पुलिस बूथ पर जाने की सलाह दी।
पुलिस बूथ पहुंचने पर, ड्यूटी पर तैनात अधिकारी ने मेरी बात अनमने ढंग से सुनी। जब मैंने सीसीटीवी कैमरों की जांच और अगले स्टेशन पर अलर्ट भेजने की बात की, तो उन्होंने प्रक्रिया की जटिलता का बहाना बनाया।
फ्रस्ट्रेशन के बावजूद, मैंने अपनी कोशिश जारी रखी। ट्रेन में लौटकर मैंने बाकी बचे हिस्सों में खोजबीन की, लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। जब तक मैं अपने गंतव्य पर पहुंचा, मेरा मन और शरीर दोनों थक चुके थे।
गंतव्य स्टेशन पर मैंने एक औपचारिक शिकायत दर्ज कराई। मैंने रमेश का हुलिया, उसकी बातें और उसकी हरकतों का विस्तार से वर्णन किया। पुलिस ने मुझे जांच का आश्वासन दिया, लेकिन उनके रवैये से मुझे कोई उम्मीद नहीं थी।
अगले कुछ दिनों तक, मैं भावनाओं के भंवर में फंसा रहा। गुस्सा, पछतावा और धोखे का एहसास मुझे बार-बार परेशान करता रहा। मैंने कई बार सोचा कि मैंने ऐसी गलती क्यों की? आखिर मैंने एक अनजान व्यक्ति पर भरोसा क्यों किया?
हालांकि इस घटना ने मुझे बड़ा सबक सिखाया। मैंने अपनी खोई चीजों को फिर से हासिल करने की कोशिश की और खुद को संभालने की हिम्मत जुटाई। यह अनुभव मुझे सतर्क और समझदार बनने की याद दिलाता रहेगा।
यह सफर जो उत्साह और उम्मीद के साथ शुरू हुआ था, धोखे और हानि में बदल गया। लेकिन इसने मुझे यह भी सिखाया कि जीवन में सतर्कता और आत्मनिर्भरता कितनी जरूरी है।
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