"मैं लिखना चाहता हूँ ऐसा कि लेखन में रूपांतरित हो जाऊँ"

मैं लिखना चाहता हूँ ऐसा कि शब्दों से घिर जाऊँ,

हर एक अक्षर में जैसे खुद को समा लाऊँ।

लिखते-लिखते मैं बदल जाऊँ, रचनाओं में खो जाऊँ,

कहीं आकाश में उड़ जाऊँ, कहीं धरती में समाऊँ।


कागज पर लिखते हुए जैसे आत्मा की धारा बहने लगे,

हर विचार रूप धारण करे और रचनाओं से जुड़ने लगे।

मेरे शब्द नदी बन जाएं, गहरी और शांत,

पानी के हर बूँद की तरह शब्द भी हों एकाकार।


जब लिखूँ, तो रचनाएँ खुद में एक जीवन का रूप धारण करें,

हर पंक्ति में मेरी आत्मा के रंग बहने लगे।

जितना लिखूँ, उतना गहराऊँ, जैसे सागर में समाऊँ,

मेरे शब्दों में शक्ति हो, जो चमत्कारी रूप से बदल जाएं।


आधिकारिक, अनोखे, असीमित विचारों में खो जाऊँ,

कभी मनुष्य, कभी देवता, कभी दार्शनिक बन जाऊँ।

जब मैं लिखूँ, तो हर शब्द को जीवित हो जाने दूँ,

कुछ ऐसा जादू करूँ कि खुद भी खुद से बिछड़ जाऊँ।


मेरे लेखन से हर एक बूँद रंगी हो,

मेरे शब्दों की तितलियाँ आसमान में उड़ जाएं।

शब्दों का रंग कभी नीला, कभी सुनहरा हो जाए,

जो पढ़े, वो बस उसमें समा जाए।


लिखते वक्त, शब्दों में जीने की ख्वाहिश हो,

चाहे वो नदी का वेग हो या पर्वत की चोटियाँ हो।

हर कविता में, हर कहानी में,

मेरे रूप का कोई न कोई अंश हो।


मैं लिखना चाहता हूँ ऐसा कि शब्द भी जीवित हों,

मेरे हर भाव से उनके चेहरे बदलते हों।

लिखते-लिखते, मैं हर रूप में ढल जाऊँ,

कुछ ऐसा हो कि मेरा अस्तित्व रचनाओं में समा जाए।


अगले पन्ने पर जैसे खुद को देख सकूँ,

मैं वही होऊँ, जो कल मैं नहीं था, आज हूँ।

लिखने में रूपांतरित हो जाने की चाहत है,

ताकि मेरा हर शब्द, खुद मेरी पहचान बन जाए।


इसी लेखन में हर रूप अपनाऊँ,

मैं चाहता हूँ, लिखते हुए रूपांतरित हो जाऊँ।

हर कल्पना, हर विचार में खो जाऊँ,

इसी प्रकार मैं, बस शब्दों में बदल जाऊँ।


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