भीड़ भरी ट्रेन

 भीड़ भरी ट्रेन


भीड़ भरी ट्रेन में सफर कर रहा था,

शाम का वक्त था, दिन ढल रहा था।

हर चेहरा थका, हर दिल उदास,

घर लौटने की थी सबको आस।


पटरियों पर दौड़ती धड़कन सी आवाज,

और भीतर खामोशी का था राज।

हाथों में पकड़, डंडों का सहारा,

हर मुसाफिर का अलग था किनारा।


हवा में घुला पसीने का गंध,

दिनभर की मेहनत का नीरस छंद।

सूट, साड़ी, बूट, और जींस,

जिंदगी का ये मेला कहीं अजीब।


चाय वाला आवाज लगाता,

"चाय ले लो!" वो सबको बुलाता।

सामने से गुज़रा मूंगफली का बैग,

किरदारों की महफिल का अद्भुत फ्लैग।


एक बच्चा हंसा, तो गूंज उठी ट्रेन,

मासूमियत का वह प्यारा सा क्षण।

बुजुर्ग ने दी लंबी सी सांस,

सालों के सफर की उसकी थी बात।


खिड़की के पार डूबता सूरज,

सोने में रंगे आसमान के दर्ज।

खेत, कारखाने पीछे छूटे,

अंधियारे में दिन के सुर टूटे।


स्टूडेंट बैठा किताबों के संग,

सपने बुनता जीवन के रंग।

मजदूर सोया, औजार पास,

दिनभर की मेहनत का ये था उल्लास।


माँ ने गोद में बच्चे को सुलाया,

उसकी आंखों में स्नेह छलक आया।

कोने में जोड़ी ने बातें कीं धीमे,

प्यार की धारा जैसे बहा मीठे।


चलती ट्रेन, लयबद्ध गीत,

धातु और पटरियों का अद्भुत संगीत।

सुरंगों से गुजरती, पुलों को चूमती,

रात की चादर में चुपचाप घूमती।


भीड़ के भीतर एक जुड़ाव था,

अनजान चेहरों में अपनापन सा था।

एक मुस्कान, एक नजर, एक इशारा,

इस सफर का था ये छोटा सा सहारा।


जैसे-जैसे स्टेशन पास आया,

हर मुसाफिर ने घर का सपना सजाया।

धीरे-धीरे सब उतर गए,

अपने-अपने गंतव्य पर बिखर गए।


अब ट्रेन खाली, फिर भी चल रही थी,

अपनी मंज़िल की ओर बढ़ रही थी।

उसकी भीड़ भरी यादें अब मौन थीं,

पर किस्सों का भार उसमें शामिल था।


भीड़ भरी ट्रेन में सफर कर रहा था,

शाम का वक्त था, दिन ढल रहा था।

हर सफर एक कहानी बनाता,

हर पल ज़िंदगी का गीत गाता।


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