Sanskrit ke shlokas....

 "काकैः सह प्रवृद्धस्य कोकिलस्य कला गिरः।

खलसङ्गेऽपि नैष्ठुर्यं कल्याणप्रकृतेः कुतः ॥" अर्थात - "कौए के साथ बड़े होने पर भी कोकिल की वाणी मधुर ही रहती है । (ऐसे ही) दुष्ट जन के संगत में रहने पर भी पवित्र प्रकृति वाले (सत्पुरुष) में निष्ठुरता कहाँ से उत्पन्न होगी ?"





"केवलं व्यसनस्योक्तं भेषजं नयपण्डितैः। तस्योच्छेदसमारम्भो विषादपरिवर्जनम्॥" अर्थात - "नीतिविदों ने दुःख की औषधि केवल यही बताई है - विषाद का त्याग और दुःख के उच्छेद के प्रयत्नों का प्रारंभ ।"





"कस्य दोषः कुले नास्ति व्याधिना को न पीडितः ।
व्यसनं केन न प्राप्तं कस्य सौख्यं निरन्तरम् ॥"

अर्थात - "किसके कुल में दोष नहीं होता ? रोग किसे दुःखी नहीं करते ? दुःख किसे नहीं मिलता और निरंतर सुखी कौन रहता है ? अर्थात कुछ न कुछ कमी तो सर्वत्र है और यह एक कटु सत्य है ।"




"कैचि द्दैवात्स्वभावाद्वा कालात्पुरूषकारतः। संयोगे केचिदिच्छन्ति फलं कुशलबुद्धयः।" अर्थात - "इष्ट-अनिष्ट में कुछ व्यक्ति दैव (भाग्य), कुछ पौरूष तथा कुछ समय को कारण मानते हैं; बुद्धिमानों का कथन है कि इनके संयोग से ही फल की उत्पत्ति होती है ।"





"अप्रियाण्यापि कुर्वाणो यः प्रियः प्रिय एव सः। दग्धमन्दिरसारेऽपि कस्य वह्नावनादरः॥" अर्थात - "भले अप्रिय कार्य करता हो, फिर भी जो अपना प्रिय है वो तो प्रिय ही रहता है । घर के सारे पदार्थ जला दिए हों, फिर भी अग्नि के उपर किसे अनादर होगा ?"






"गुणा गुणज्ञेषु गुणा भवन्ति,ते निर्गुणं प्राप्य भवन्ति दोषाः। आस्वाद्यतोयाः प्रभवन्ति नद्यः,समुद्रमासाद्य भवन्त्यपेयाः।।" अर्थात - "गुणियों की संगति में मनुष्य के गुण बने रहते हैं । गुणहीनों की संगति में गुण दोष बन जाते हैं । नदियों का जल समुद्र में मिलने पर पीने योग्य नहीं रहता ।"




"सद्भिः पुरस्तादभिपूजितः स्यात् सद्भिस्तथा पृष्ठतो रक्षितः स्यात्।
सदासतामतिवादांस्तितिक्षेत् सतां वृत्तं चाददीतार्यवृत्तः॥"

अर्थात - "व्यक्ति के कर्म ऐसे हों कि सज्जन समक्ष तो सम्मान व्यक्त करें ही, परोक्ष में भी करें । दुष्टों की बातें सह ले, और सदैव सदाचारण में संलग्न रहे ।"





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