मेरी आख़िरी कविता (2)...


मैं नहीं जानता,

मेरी आख़िरी कविता कौन सी होगी।

शब्दों के सागर में,

किस मोती से बात खत्म होगी।


हर लफ्ज़ जो कागज़ पर गिरता है,

वो मेरे दिल की धड़कन से मिलता है।

मैं लिखता हूँ,

जैसे आज ही का आख़िरी दिन हो।


हर कविता मेरी साँसों की गवाही है,

हर पंक्ति में मेरी आत्मा समाई है।

मुझे नहीं मालूम,

कौन सा शब्द अंतिम होगा।


तो हर बार जब कलम उठाता हूँ,

उसमें जीने की ताज़गी लाता हूँ।

हर कविता को आख़िरी मानकर,

अपना सर्वस्व उसमें डालता हूँ।


जो अधूरी है, वो पूरी हो जाए,

जो छिपा है, वो रौशन हो जाए।

हर बार एक अलविदा सा एहसास,

हर शब्द में जीवन का उपहार।


मैं लिखता हूँ ऐसे,

जैसे आख़िरी सितारा गिरा हो।

हर कविता में,

मेरा पूरा संसार बसा हो।


मैं नहीं जानता,

मेरी आख़िरी कविता कौन सी होगी।

इसलिए हर कविता को आख़िरी मानता हूँ,

ताकि वो मेरे दिल का सच कहे,

और हमेशा के लिए अमर रहे।


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