अजीब विडंबना है...
अजीब विडंबना है
अजीब विडंबना है, ये जीवन की राह,
जीत की चाहत में खो दिए कुछ रिश्तों के गवाह।
सोचा था जब सफल होऊँगा सब पास होंगे,
मेरा नाम होगा, मेरे अपने मुझसे खास होंगे।
सुना था सफल इंसान को दुनिया पूछती है,
उसके हर कदम पर सफलता की गूंजती बस्तियाँ बसती हैं।
मंज़िल की ओर जब मैंने कदम बढ़ाया,
रास्ते ने साथ दिया, मैंने हर लक्ष्य पाया।
पर यह क्या, जो सोचा था वो सपना अधूरा रह गया,
सफलता के संग कहीं मेरा अपनापन बह गया।
अब सब मेरे नाम को जानते हैं, पहचानते हैं,
पर मेरे खालीपन को ये दुनिया कैसे समझ पाएंगे?
सफल हुआ, तो अकेला हुआ ये कैसा खेल था?
भीड़ में खड़ा मैं, पर मेरा दिल अकेला था।
आगे बढ़ गया, पर कहीं पीछे ही छूट गया,
वो हँसी के दिन, वो बेफिक्र पल, जो मेरा था।
अब याद आता है जब मैं हारता हुआ था,
सब पास थे, भले कोई पूछता नहीं था।
उनके साथ का सुकून मेरे दिल को भाता था,
बातें बिन शब्दों की भी सब कुछ कह जाती थीं।
यह कैसा खेल है, यह कैसा सफर है,
जहाँ जीत के बाद भी दिल तन्हा और बेखबर है।
सोचता हूँ कभी, क्या हारना बेहतर था?
अपने पास रहते, भले जीवन की गाड़ी धीमी थी।
सब कुछ पाकर भी सब कुछ खोता चला गया,
या शायद कुछ न पाकर भी, खोने का एहसास ही था।
जीवन के इस मोड़ पर आकर मैं ठहर गया हूँ,
खुद से सवाल करता हूँ, जवाब से डर गया हूँ।
क्या जीत वही थी, जहाँ अपने बिछड़ जाएँ?
या हार वो थी, जहाँ दिल के रिश्ते सहेज जाएँ?
कुछ समझ नहीं आता, कौन सी राह सही थी,
ख्वाहिशों की भीड़ में मेरी मंज़िल कहीं छुपी थी।
अजीब विडंबना है, इस जीत का यह रंग,
सफलता के गीतों में खो गया जीवन का संग।
अब सोचता हूँ काश, थोड़ा हार ही गया होता,
अपनों का साथ पाकर ही जीवन का गीत सजा होता।
सच है, यह जीवन बस एक विडंबना है,
जीत और हार की उलझन में तन्हाई का अफसाना है।
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