शूरू में लज्जा आती थी...
शूरू में लज्जा आती थी
असफ़लता से
रिजल्ट में अपना नाम नहीं देखने पर
हर सप्ताह परीक्षा में उपस्थित होना
कुछ परीक्षाओं में सफल होना
कभी पीटी में होना
कभी मैंस में होना
कभी इंटरव्यू में छट जाना
ऐसा चलता रहा
कुछ ना कुछ करने लगा नौकरी के नाम पर
पर परीक्षा में शामिल होने की आदत नहीं गई
पता ही नहीं चला
मैं कब इतना बेशर्म हो गया
फेल होने पर भी कोई लज्जा नहीं
अब तो पढ़ता भी नहीं हूं
बस परीक्षा देने चला जाता हूं
और अब कभी भी रिजल्ट में मेरा नाम नहीं होता
आत्मा मर चुकी है
असफ़लता का अलग ही नशा है
एक बार इसकी जो आदत लग जाए
फिर इंसान अंदर से जैसे ख़त्म हो जाता है
उम्मीद ही नहीं होती
हारना आदत बन जाती है...
रूपेश रंजन
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