कितना समझते हैं स्त्री को पुरुष...

 

 

स्त्री को देखता पुरुष अक्सर,
बस बाहरी रूप, देह का स्वर।
काया के आकार में उलझा,
उसके भीतर का मौन न समझा।

रूप की सीमा में क़ैद रहे,
मन की गहराई में कब सहे?
जो जलधार-सी बहती है,
उसकी आत्मा क्यों अनजानी रहती है?

पर देखो, वह एक शिखा है,
हर दर्द में जलती दीवा है।
सपनों की लहरों में खोती,
खुशियों के लिए अपनी छाया बोती।

स्त्री प्रेम है, त्याग की गाथा,
अग्नि-परीक्षा से बनी उसकी कथा।
पलकों में आकाश समेटे,
सूरज से आँख मिलाने की हिम्मत किए।

उसके हाथों की लकीरें देखो,
संघर्ष की हर कहानी पढ़ो।
रक्तिम सूर्य से धैर्य लिया है,
और चाँद से ममता को सिया है।

वह केवल देह नहीं, वह विचार है,
धरा-सी सहनशीलता का आधार है।
वह गीत है प्रेम का, अनकही रागिनी,
जीवन के हर क्षण की अंजानी संगिनी।

पर पुरुष, तुम कब जानोगे,
उसकी हर ख़ामोशी पहचानोगे?
देह से परे, आत्मा की खोज में,
कब उसकी सच्ची गहराई में डूबोगे?

स्त्री में एक ब्रह्मांड समाया,
तुमने बस एक शरीर को पाया।
जब देखोगे उसे संपूर्ण नजरों से,
तभी जानोगे वह है किस कदर अमूल्य सबहों से।

तो पूछो ख़ुद से, देखो मन की आँखों से,
कितना समझते हो तुम उसे सच में,
उसकी देह के परे?
क्योंकि वही है, जो तुम्हें जीवन दे।

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