चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं...

चुप्पियां बढ़ती जा रही हैं,

उन जगहों पर जहाँ बोलना ज़रूरी था।

जहाँ सच के दीप जलाने थे,

वहाँ अंधेरों ने डेरा डाला था।


जहाँ स्वर उठने थे अन्याय के खिलाफ,

वहाँ सन्नाटा गूंज रहा है।

जहाँ प्रश्न पूछने की हिम्मत चाहिए थी,

वहाँ मौन का बोझ बढ़ रहा है।


हर दर्द दबा, हर चीख रूकी,

हर आवाज़ कहीं खो गई।

जहाँ विचारों की लहरें उठनी थीं,

वहाँ खामोशी की दीवारें खड़ी हो गईं।


क्या हुआ जो शब्द बंध गए,

क्या हुआ जो होंठ सिल गए?

ये दुनिया तो चलती थी संवाद पर,

अब क्यों सपने भी बुझ गए?


शब्दों की शक्ति को भूल बैठे हैं,

सच की मशाल बुझा बैठे हैं।

जहाँ क्रांति की गूंज होनी थी,

वहाँ डर के साये बसा बैठे हैं।


क्या ये मौन हमें आज़ाद करेगा?

या और बेड़ियों में जकड़ देगा?

जो चुप हैं आज, कल शायद

उनका मौन ही उनकी आवाज़ दबा देगा।


चुप्पियां तोड़नी होंगी हमें,

हर डर, हर घुटन से आगे बढ़ना होगा।

जहाँ बोलना था, वहीं बोलना होगा,

न्याय के लिए हमें जगना होगा।


आओ, शब्दों को नया जीवन दें,

हर चुप्पी को एक आवाज़ दें।

क्योंकि जहाँ बोलना ज़रूरी होता है,

वहीं बदलाव का पहला कदम होता है।


Comments