माँ से मिलना था।

एक यात्रा पर निकले थे,

माँ से मिलना था।

मैं,

और मेरी दुनिया,

हमारे साथ हमारी पूरी दुनिया—

हमारा नन्हा बच्चा था।


रास्ता दुर्गम था,

चढ़ाई तीव्र थी।

मेरी पत्नी चढ़ नहीं पा रही थी,

तो बच्चा भला कैसे चढ़ता?


आखिरकार, हमने एक घोड़ा लिया यात्रा के लिए—

और कोई उपाय नहीं था,

माँ तक पहुँचना ही था।


हम सब सवार हो गए,

घोड़ा हमें खींचे ले जा रहा था।

चलते-चलते, अचानक—

घोड़ा फिसल गया।


बच्चा घोड़े पर ही रह गया,

पर हम दोनों नीचे गिर पड़े।

गिरना था गहरी घाटी में,

पर किस्मत ने एक डोर थाम ली।


मैं ऊँचे पेड़ों की डालियों पर अटक गया,

और वो, नीचे की झाड़ियों में झूल गई।


नियति का नियम तो यही था—

हम दोनों का अंत होना चाहिए था।

पर शायद भाग्य ने कोई और कहानी लिख रखी थी।


लोग जुटने लगे,

हमें ऊपर खींचने की कोशिशें शुरू हुईं।

घंटों की मेहनत के बाद

मैं किसी तरह ऊपर खिंच लिया गया।


पर नीचे… मेरी पत्नी अभी भी झूल रही थी।

अत्यधिक पीड़ा में,

सूरज ढलने को था,

पर हम उसे ऊपर नहीं ला सके।


उसने मुझे देखा,

उसकी आँखों में गहराई थी—

एक मौन प्रार्थना,

एक मूक अनुरोध।


दर्द असहनीय हो चुका था,

अब और नहीं सह सकती थी।

उसकी आँखों से आँसू बहे,

मेरी आँखों से भी।


फिर, उसने अपनी पकड़ छोड़ दी,

और हमेशा के लिए

घाटी में समा गई।


मैं अकेला रह गया,

अपने बच्चे के साथ।

और वो…

वो माँ के पास चली गई।


रूपेश रंजन

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