कितना समझते हैं स्त्री को पुरुष, उनके देह के परे...
कितना समझते हैं स्त्री को पुरुष,
उनके देह के परे
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हुस्न का हर चेहरा पढ़ लिया, पर मन की किताब अधूरी रही,
शब्दों में छिपी उसकी खामोशी, कब किसी ने पूरी सही। -
आँखों में सपने, दिल में आकाश लिए चलती है,
त्याग की हर कथा, चुपचाप लहू से लिखती है। -
देह को पूजा, पर आत्मा का न कोई दीप जलाया,
उसके जज़्बातों को रेत की तरह हाथों से गिराया। -
वह प्रेम है, वह समर्पण है, पर यह जानोगे कब?
देह से परे उसकी शीतल छाँव को पहचानोगे कब? -
हर दर्द की दीवार में वह नींव की ईंट होती है,
सपनों के शहर में वह अपनी परछाई बोती है। -
पर पुरुष ने देखा सिर्फ चेहरा, और बात वहीं पर छोड़ दी,
मन की गहराई में डूबने की, न कभी किसी ने होड़ की। -
वह धरा-सी सहनशील है, वह नदी-सी बहती जाती है,
पर इस यात्रा की थकान को कौन देख पाता है? -
कभी त्याग की अग्नि, कभी ममता का स्पर्श है,
पर देह के परे उसका जीवन ही संघर्ष है। -
आँखों की नमी में हर सपना छिपा लेती है,
फिर भी खुद को हर बार एक उम्मीद दे देती है। -
जो समझ सके उसके मन को, वही प्रेम का ज्ञानी होगा,
देह के पार उसका संसार, तभी तुम्हारा अपना होगा। -
शब्दों से नहीं, एहसासों से उसे पाना होगा,
देह की सीमा से बाहर, आत्मा का रिश्ता निभाना होगा। -
तब पूछना ख़ुद से, कितनी समझ आई उसकी परिभाषा,
क्या सिर्फ़ देह तक सीमित रही, या पाई उसकी गहराई की भाषा।
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