प्रेम की नदी...
प्रेम की नदी...
बहती नदी-सी तुम, मैं तट का किनारा,
धीरे-धीरे मुझमें उतरती तुम्हारी धारा।
लहरों की तरह तुम मुझसे लिपटी,
मैं प्यासा रहा, तुम सावन की निपी।
साँसों की लहरें टकराती हैं हमसे,
भीगते हैं तन-मन इस बहाव में ऐसे।
तुम गहरी धार, मैं नाव का पतवार,
डूबता-उतराता, बहता बार-बार।
हवा में गूँजती मीठी सिसकियाँ,
जैसे लहरों की मधुर थपकियाँ।
तुम बूँद-बूँद मेरे भीतर समाती,
मैं सागर बन तुम्हें समेटे चला जाता।
रात की चाँदनी में चमकता जल,
हमारी देहों का स्पंदन विहल।
नदी और किनारा, मिलकर एक हो गए,
विलय में बहकर निशब्द खो गए।
रुपेश रंजन...
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