"मैंने सब कुछ देखा....
"मैंने सब कुछ देखा"
मैंने सब कुछ देखा,
पहाड़, नदियाँ, झील की गहराई,
और फिर वही तन्हाई।
क्या ही बदल गया?
मैं तो फिर भी ज़मीन पर ही हूँ,
अपने कमरे में लेटा,
दीवारों को टकटकी लगाकर देखता हुआ।
और खुश हूँ फिर से इन दीवारों के बीच आकर।
फिर क्या मिलता है भटककर,
अपनी सच्चाई से दूर हटकर?
बस कुछ पलों के लिए अपनी सच्चाई को भुला पाए,
और फिर से अपनी वही पुरानी ज़िंदगी शुरू करें।
"सफर और सच्चाई"
मैंने सब कुछ देखा,
पहाड़, नदियाँ, झील की गहराई।
पर अंत में लौटा उसी तन्हाई,
क्या बदला, क्या पाया,
मैं फिर भी ज़मीन पर ही तो हूँ।
कमरे की दीवारों में घिरा,
नज़रों से उन्हीं को तकता।
फिर भी सुख है इन सीमाओं में,
जाने का अर्थ ही क्या था?
क्या मिलता है यूँ भटककर,
अपनी सच्चाई से दूर हटकर?
बस कुछ पल को खुद को भूल पाए,
और फिर वही पुरानी ज़िंदगी दोहराए।
क्या यात्रा का अर्थ बस यही है?
कि कुछ देर के लिए भ्रम में जिएँ,
और फिर लौट आएँ उसी सत्य में,
जो पहले भी अपना था,
और हमेशा अपना रहेगा।
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