मेरी कविताओं को गुनगुना ज़रूर...
मेरी कविताओं को गुनगुना ज़रूर,
थोड़ा अच्छे से, थोड़ा भरपूर।
मेरे जीते-जी नहीं भी सही,
पर मरने के बाद, पक्का जरूर।
जब मैं लिखता था चुपचाप कभी,
वो बातें मेरी, वो जज़्बात सभी,
जो बिखरे पड़े हैं कागज़ पे यहां,
उन्हें अपना सा एहसास कभी।
शब्दों में ढलकर जो दर्द कहे,
जो सपने बुने, जो रंग सजे,
वो सब मेरे दिल की आवाज़ थे,
जो तुम तक पहुँचने को बेक़रार रहे।
मैं गीत लिखूँ या ग़ज़ल कहूँ,
कभी धूप लिखूँ, कभी बादल बनूँ,
कभी हँसते लफ्ज़ों की बौछार करूँ,
तो कभी आंसुओं की मिसाल बनूँ।
मेरी सांसों से जो धुन बसी,
जो प्रेम लिखा, जो छंद रची,
वो धड़कन बनकर गूँजें कभी,
तेरी यादों में, तेरी बातों में ही।
अगर मेरी बातें अधूरी रहीं,
अगर मेरी चाहतें रुकी सी रहीं,
तो वादा करो, तुम पूरा करोगे,
हर अक्षर को नया रंग दोगे।
कभी चुपके से तुम गुनगुनाना,
मेरी कविताओं में खुद को पाना,
जो मैं ना रहूँ, तो भी कहना,
"ये शब्द हमारे थे, हमारे रहेंगे।"
इस दुनिया से जब दूर चला जाऊँ,
तो मेरी लिखी बातें दोहराना,
कभी हंसना, कभी रो भी लेना,
पर मुझे भूलना मत, ये वादा निभाना।
मेरी कविताओं को गुनगुना ज़रूर,
थोड़ा अच्छे से, थोड़ा भरपूर।
मेरे जीते-जी नहीं भी सही,
पर मरने के बाद, पक्का जरूर।
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