नज़रें...

 नज़रें


शाम को जब लौटी घर,

झाड़ा खुद को हल्के से,

गिर पड़ीं ज़मीन पर नज़रें,

कुछ ठहरी, कुछ चलती सी।


कुछ थीं दुपट्टे में उलझी,

कुछ आस्तीन में अटकी,

बालों में थी कोई फंसी,

गर्दन पर कुछ चिपकी।


कुछ सवालों से भरी हुई,

कुछ थी ज़हर में डूबी,

कुछ थीं हंसती बेहयाई से,

कुछ लगीं मदहोश-सी।


हर रोज़ निकलूं बेधड़क,

हर रोज़ ही लौटूं वैसे,

पर टंगे रहते हैं साये,

आँखों के, नज़रों के।


कैसा ये सन्नाटा है?

कैसा ये अंधियारा है?

क्यों हर राह पे बिखरी हैं,

नज़रें इतनी प्यासी सी?


चलना है फिर भी मुझको,

बोझ उठाकर हरदम,

पर मन के आँगन में बस,

इक ख्वाहिश—

नज़रों का बोझ न हो।


रुपेश रंजन...

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