शाम हो चुकी है...
शाम हो चुकी है
ट्रेन रफ़्तार पकड़ रही है,
घर पास है।
उन्हीं रास्तों से गुज़रकर
अपने कमरे तक पहुँचना,
लटकते ताले को घूरना,
और एक ही झटके में
ताले को अपनी मनपसंद चाबी से खोल देना।
फिर एक लंबी साँस...
वही कमरे के अंदर की तन्हाई और सूनापन।
सारे कमरों में एक-एक करके जाना,
लाइट ऑन करना—
पर किसलिए?
कोई कमरे में जाएगा तो नहीं,
और मैं बस एक कमरे में सिमटकर रह जाऊँगा।
मेड आएँगी,
खाना बनाएँगी,
कुछ पूछेंगी,
कुछ बताएँगी—
"और सर, कल सब्ज़ी लेते आना,
टमाटर और मिर्ची भी,
तेल भी ख़त्म हो गया है"
कहते हुए निकल जाएँगी।
मैं फिर खो जाऊँगा अपने मोबाइल में,
रात ज़्यादा हो जाएगी,
और खाना ख़त्म करके
फिर से उसी बिस्तर पर।
कल के काम को याद करके
खुश होने की कोशिश,
और कुछ है भी नहीं इस कमरे में
खुश होने के लिए।
कुछ है तो बस
बीते कुछ सालों की यादें,
दीवार, खिड़की और दरवाज़ा।
दीवार से लटके गिरगिट
और बजबजाते कुछ मच्छर भी।
इन्हीं दोस्तों के साथ
बीत रहे हैं साल दर साल।
— रूपेश रंजन
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