धीरे पिघलो....
तुम्हें पिघलना होगा, पर धीरे-धीरे,
हर क्षण को एक युग की तरह जीते हुए।
ना जल्दबाज़ी, ना हड़बड़ी,
बस धीरे-धीरे, थमकर बढ़ी।
हर पल को विस्तार दो,
हर सांस को एक त्यौहार दो।
हर बूंद जो गिरे तुम्हारी,
बने कहानी, रहे हमारी।
संशय की बर्फ़, दर्द की ठंड,
पिघले, मगर जले न मंद।
गर्मी बहे कुछ इस तरह,
सुरों सी गूंजे, बिन कहे कहे।
दीपक की लौ-सा, धीरे जलो,
अंधियारे में उम्मीद बनो।
पिघलो हिमालय की चोटी से,
धीमे-धीमे, झरने-सी।
हर क्षण को जीवन बना दो,
सपनों से उसको सजा दो।
पिघलना भी एक कला है,
जो वक्त संग ढल चला है।
जल्दी पिघलना क्षणभंगुर है,
एक तेज़ लौ जो बेअसर है।
पर अगर धीरे-धीरे बहोगे,
तो युगों तक तुम रहोगे।
तो पिघलो पर संयम से,
धीमे, मधुर, हर दम से।
ताकि जब तुम अंत में जाओ,
तुम्हारी तपिश, संसार में रह जाओ।
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