निर्भरता का भार...
निर्भरता का भार
जब भी संसार में अपनी कुंजी किसी और के हाथ सौंप देते हो,
तो उसके निर्णयों में अपनी तक़दीर को बांध देते हो।
फिर चाहे वह प्रेम हो, भक्ति हो, या कोई और आस,
हर निर्भरता बनती है एक अदृश्य पिंजरा, जो धीरे-धीरे छीन लेता है सांस।
जरूरत से ज़्यादा झुक जाओ, तो छाया समझ कर लोग पैर रख देते हैं,
अपनी ही परछाईं में कैद होकर, कई सपने दम तोड़ देते हैं।
निर्भरता चाहे प्रेम की हो, या ईश्वर की भक्ति में समर्पण,
अगर आत्मा खो जाए, तो रह जाता है बस एक निर्जीव दर्पण।
ईश्वर भी जब देखता है तुम्हारी अंधी आस,
तो एक पल को उसे भी अपने ईश्वर होने का होता है एहसास।
फिर इंसान की तो बात ही क्या, जो अधिकार पा ले,
वह नियति को भी अपने हुक्म का दास बना ले।
समर्पण बुरा नहीं, पर खुद को मिटा देना उचित नहीं,
प्रेम पवित्र है, पर आत्म-सम्मान से बढ़कर कोई रीत नहीं।
जो तुम्हारे होने से तुम्हें ही मिटा दे,
ऐसी निर्भरता की जंजीरों को तोड़ना ही श्रेष्ठ है, यह मत भूले।
इसलिए अपनी कुंजी को संभालकर रखना,
अपनी डोर किसी और के हाथ में न देना।
सहारा लो, पर अपनी जड़ें मत खो देना,
निर्भर रहो, पर अपने अस्तित्व से समझौता मत कर लेना।
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