राख से उठता रहा...
राख से उठता रहा
कितनी बार बर्बाद हुआ,
कितनी बार बिखर गया,
हर बार खुद को समेटा,
हर बार फिर से खड़ा हुआ।
आंधियां आईं, तूफान चले,
हर बार ज़िंदगी ने वार किए,
गिरा, संभला, टूटा, जुड़ा,
हर बार नए हौसले भरे।
खुद को जलाया अंगारों सा,
खुद को तपाया सूरज सा,
फिर उसी राख से जन्म लिया,
फिर से बना एक आग नया।
चिंगारी थी, शोला बना,
खुद अपनी ही लौ में जला,
पर हर जलन के बाद भी मैं,
फिर से राख से उठ खड़ा हुआ।
मिट्टी ने कई रंग दिखाए,
कई बार ख्वाब अधूरे रह गए,
पर हर रात के साए से बाहर,
नई सुबह के गीत गूंजे।
पर ये जलना, ये उठना,
हमेशा तो नहीं रहेगा,
एक दिन ऐसा आएगा,
जब सब कुछ रुक जाएगा।
ना कोई आंधी, ना कोई शोला,
ना कोई राख, ना जलने की भूख,
सब खत्म हो जाएगा,
मेरा राख ठंडा हो जाएगा।
कोई लपट नहीं बचेगी,
कोई धुआं भी उड़ न पाएगा,
बस एक ख़ामोशी रहेगी,
जो मेरी कहानी सुनाएगा।
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