निस्वार्थ सेवा का अमृत...

 

निस्वार्थ सेवा का अमृत

मैंने एक भूखे को भोजन दिया,
शीत में ठिठुरते तन को कंबल दिया।
नन्हें कदमों की डगमगाहट देखी,
तो उन्हें संबल का अंकुर दिया।

जो आवश्यक था, वही अर्पण किया,
उसकी आँखों में जो दीप जले,
उस संतोष की आभा में,
मैंने स्वर्ग का प्रतिबिंब मिले।

न चाह अमृत, न चाह अमरत्व,
इस जीवन का सत्य अपरिवर्त,
माटी के कण मिटने को हैं,
तो फिर कुम्भ के जल में क्या रहस्य गूढ़ है?

उस नन्हीं मुस्कान की रोशनी में,
जो आनंद की गंगा बही,
क्या तीर्थों का पुण्य भी बढ़ सके,
उस एक क्षण की निर्मल लहर से?

जब संतोष की चाँदनी बरसी,
उस गरीब के कोमल नयन से,
वह पल था सबसे अनुपम,
देवत्व था उसके अभिनन्दन में।

क्या यज्ञ, क्या तर्पण, क्या मंत्रों की गूँज?
क्या स्वर्ण, क्या संपत्ति, क्या वैभव का ताज?
सब फीके पड़ गए उस समय,
जब माँ के आँचल में मुस्काया राज।

उसकी आँखों में था जो प्रकाश,
क्या दीपक की लौ भी वैसा जलती?
क्या किसी स्वर्ग की कल्पना भी,
उस निर्मल सत्य को छू सकती?

मैंने पाया, मैं धन्य हुआ,
उस नीरव अनुभूति में खो गया,
क्योंकि जीवन का सार वहीं बसा था,
जहाँ प्रेम और करुणा से मन हरा-भरा था।

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