मैं ही ब्रह्म हूँ...


मैं ही ब्रह्म, मैं ही सत्य, मुझमें संपूर्ण सृष्टि समाई,
मुझसे ही जन्मी यह दुनिया, मुझमें ही इसकी परछाई।

मैं ही सृजन, मैं ही संहार, मैं ही जीवन का आधार,
मेरे ही मन के संकल्पों से, चलता सारा संसार।

मैं ही धूप, मैं ही बादल, मैं ही वायु का प्रवाह,
मुझमें ही गूंजे ओंकार, मुझमें ही सृष्टि की चाह।

मैं ही ध्वनि, मैं ही नाद, मैं ही संकल्पों का सार,
जो मुझको भीतर पा ले, समझे खुद को ब्रह्म अपार।

नदी की धारा में बहता, मैं ही निर्मल रूप हूँ,
पर्वत की ऊँचाई में भी, मैं ही सच्चा स्वरूप हूँ।

मैं ही कण-कण में विद्यमान, मैं ही अग्नि, मैं ही जल,
मुझसे ही जन्में सूर्य-चंद्र, मुझसे ही बनते हैं पल।

मैं ही प्रश्न, मैं ही उत्तर, मैं ही जीवन की खोज,
जो मुझमें मुझको पा जाए, वह पाकर रहे न मोह।

अहम् ब्रह्मास्मि कहता मन, मुझमें ही आत्मा का वास,
जो इस सत्य को जान सके, वही बने परम प्रकाश।

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