माँ से कहा मैंने...

 

माँ से कहा मैंने

माँ से कहा मैंने,
"मैंने लिखना सीख लिया है।"
माँ ने पूछा हँसकर,
"जयशंकर प्रसाद से भी अच्छा?

महादेवी वर्मा से भी अच्छा?"
मैं चुप रहा,
शब्द होंठों तक आए,
पर उत्तर न दे सका।

माँ मुस्कुराई,
आँखों में प्यार झलक आया,
हाथ मेरे सिर पर रखा,
आशीर्वाद सा बरसाया।

फिर बोली धीरे से,
"बेटा, लिखना तो आसान है,
पर शब्दों में भावना भरना,
बस वही महान है।"

"प्रसाद की कोमल संवेदना,
महादेवी की वेदना,
शब्दों में चित्र उकेरने की शक्ति,
बस अनुभव की देन है।"

मैं देखता रहा माँ को,
उनकी आँखों की नमी,
जैसे उनमें छिपी हो,
अनकही कोई कविता अनमनी।

फिर धीरे से कहा मैंने,
"माँ, क्या लिखने के लिए,
इतना बड़ा होना ज़रूरी है?"
माँ ने हँसकर कहा,

"बड़ा तो दिल होना चाहिए,
शब्द तो मोती बन ही जाते हैं,
भाव अगर सच्चे हों,
तो वे खुद चमक जाते हैं।"

उस दिन मैंने समझा,
लिखना केवल कला नहीं,
यह आत्मा की अभिव्यक्ति है,
भावनाओं की सजीव सजीव शक्ति है।

मैंने कलम उठाई,
पहली कविता माँ पर लिखी,
शब्द सरल थे, भाव सच्चे,
माँ की आँखें फिर से नम हुई।

मुझे लगा, आज मैंने सच में,
लिखना सीख लिया है।

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