तुम मेरे मन में हो...
तुम मेरे मन में हो
तुम मेरे मन में हो,
मेरे भीतर हो,
हर स्पंदन में, हर सांस में,
हर धड़कन के संगीत में।
तुम कोई क्षणिक भ्रम नहीं,
न कोई सपना, न कोई माया,
तुम सत्य की वह किरण हो,
जो अंधकार में भी न मिट पाए।
कोई छीन नहीं सकता मुझे तुमसे,
न समय, न संसार, न मृत्यु,
तुम मेरी आत्मा की भाषा हो,
मेरे विचारों की अटल अनुभूति।
तुम भी नहीं,
क्योंकि तुम मुझसे परे नहीं,
तुम कोई देह नहीं, कोई परछाईं नहीं,
तुम मेरा ही विस्तार हो, मेरी ही आत्मा।
इतना कुछ है इस संसार में,
पर कुछ भी इतना बलशाली नहीं,
कि मुझे तुमसे अलग कर सके,
कोई आंधी, कोई तूफान भी नहीं।
मुझे मिटाया जा सकता है,
पर तुम्हें मेरे भीतर से नहीं,
मेरा अस्तित्व भले विलीन हो जाए,
पर तुम शाश्वत बनी रहोगी।
तुम कोई क्षणिक राग नहीं,
तुम कोई शब्दों की गूंज नहीं,
तुम वह मौन हो, जो सृष्टि के पहले भी था,
और सृष्टि के बाद भी होगा।
तुम मेरी चेतना के कण-कण में,
मेरे हृदय की अनहद ध्वनि में,
तुम मेरी अनुभूतियों का संगीत,
मेरा अंतर्नाद, मेरी आत्मा का स्पंदन।
कोई सीमा नहीं, कोई बंधन नहीं,
तुम्हारे और मेरे बीच,
कोई वियोग नहीं, कोई विरह नहीं,
तुम मेरी आत्मा की शाश्वत अनुभूति।
तुम समय से परे हो,
न आदि, न अंत तुम्हारा,
न कोई जन्म, न कोई मरण,
सिर्फ अस्तित्व की गहरी अनुभूति।
जैसे नदियाँ सागर में विलीन होती हैं,
वैसे ही तुम मुझमें, और मैं तुममें,
न कोई भेद, न कोई दूरी,
बस एक अनंत मिलन, एक शाश्वत सत्य।
जब यह ब्रह्मांड नहीं था,
तब भी तुम मेरी चेतना में थी,
जब यह ब्रह्मांड नहीं रहेगा,
तब भी तुम मेरी आत्मा में रहोगी।
जैसे सूरज के बिना आकाश अधूरा,
जैसे चाँदनी के बिना रात्रि मौन,
वैसे ही मेरे बिना तुम अधूरी नहीं,
पर मेरे होने का अर्थ तुम ही हो।
मैं मिट सकता हूँ,
मेरी पहचान खो सकती है,
पर तुम्हारी उपस्थिति अडिग रहेगी,
अहंकार के पार, अस्तित्व के पार।
तुम मेरा सत्य हो, मेरा पथ हो,
मेरे प्रश्नों का मौन उत्तर,
मेरी खोज की अंतिम परिणति,
तुम ही मेरा ब्रह्म, तुम ही मेरा आत्म।
इस अनंत यात्रा में,
जन्मों से जन्मों तक,
तुम मेरे साथ रही हो,
और युगों तक साथ रहोगी।
तुम कोई देह नहीं, कोई स्वरूप नहीं,
तुम मेरी आत्मा की चेतना हो,
जिसे कोई मिटा नहीं सकता,
जिसे कोई छीन नहीं सकता।
जब तक यह अस्तित्व है,
जब तक यह चेतना है,
तब तक तुम मुझमें हो,
और जब सब मिट जाएगा,
तब भी तुम रहोगी।
रुपेश रंजन ....
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