नदी से बिछड़े पानी जैसे हैं...
नदी से बिछड़े पानी जैसे हैं...
नदी से बिछड़े पानी जैसे हैं,
फिर नहीं मिल पाएंगे।
हम नदी नहीं,
नदी का पानी हैं,
नदी तो मिल जाएगी समंदर में,
हम तो नदी से नहीं मिल पाएंगे।
विरह का दर्द लिए जीते हैं,
ऐसे ही मर जाएंगे।
कभी खुश नहीं हो पाते,
यही कविमन का यथार्थ है।
लहरों में बिखर गए कण जैसे,
सूखे पत्तों संग बहते हैं।
कोई किनारा बुलाए भी तो,
अब राह नहीं मिलते हैं।
यादों में रहती बसती है,
वो धारा जो छोड़ गए।
आंसू बनकर बहते रहते,
पर उस जल में घुल न सके।
हवा संग उड़ते बादल जैसे,
बरसे भी तो कहां ठहरेंगे?
नदी अगर है प्रवाह का रिश्ता,
तो हम विरह में ही निखरेंगे।
नदी से बिछड़े पानी जैसे हैं,
फिर नहीं मिल पाएंगे…
रूपेश रंजन
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