तुम ही शिव हो...
तुम ही शिव हो
क्यों पूजा करती हो शिव की?
क्या यूँ मिटेगा वर्चस्व का अंधेरा?
जो सदियों से रचा गया,
क्या वो यूँ ही टूटेगा तेरे सिर झुकाने से?
जब तक तू स्वयं को न पहचाने,
ये सृष्टि तुझे सदा ही परिभाषित करती रहेगी।
चारों ओर भीड़ उमड़ी पड़ी है,
मंदिरों में पाँव रखने की जगह नहीं।
धूप, दीप, नैवेद्य चढ़ाए जा रहे हैं,
और पुरुष फिर गर्वित खड़ा है—
अपनी सत्ता के अटूट होने की कल्पना में,
तेरी आस्था को अपने अधिकार का प्रमाण मानकर।
क्या यूँ आगे बढ़ पाएगी तू?
अगर तुझे पुरुषों से आगे निकलना है,
तो उनकी पूजा नहीं, स्वयं का उत्थान कर।
मत बना अर्चना का हिस्सा,
मत रख अपने अस्तित्व को भुलाकर समर्पण की मूरत,
पहले खुद को जान, अपने भीतर के शिव को पहचान।
दोहरा मापदंड है ये,
जहाँ एक ओर तुझे बलहीन ठहराया जाता है,
और दूसरी ओर शक्ति का रूप भी बताया जाता है।
क्या तेरी शक्ति बस आराधना में सीमित है?
या फिर तू सजीव लपट बनकर,
अन्याय को जलाने को तैयार है?
युद्ध यूँ नहीं जीता जाता,
श्रद्धा का भार उठाने से नहीं,
अपने भीतर के प्रकाश को जगाने से,
अपनी शक्ति को कर्म में उतारने से।
आराधना छोड़, आत्मबोध कर,
क्योंकि परिवर्तन की देवी तू स्वयं है।
खुद की पूजा कर, अपने कर्मों को साध,
अपने भीतर देख, वहीं शिव का वास है।
तू ही सृजन है, तू ही संहार है,
तू ही शक्ति है, तू ही संसार है।
अब और नहीं, अपने को तुच्छ समझना छोड़,
क्योंकि तू ही शिव है!
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