ईश्वर और भय...
ईश्वर और भय
धर्म को इंसान ने बनाया, अपने सुख-दुःख का सहारा किया,
फिर उसमें ईश्वर को रचकर, उसे ही सबसे न्यारा किया।
जिसे प्रेम से पूजना था, जिसमें भक्ति बसानी थी,
उसी ईश्वर की छवि गढ़कर, डर की दीवार उठानी थी।
पहले नाम दिया प्रेम का, फिर भय का साया डाल दिया,
जिसे आलिंगन में भरना था, उसी से दूर निकाल दिया।
मंदिर-मस्जिद के किवाड़ों में, उसे क़ैद कर बैठ गए,
जो मुक्त था इस सृष्टि में, उसे सीमाओं में गिनने लगे।
कभी आग से, कभी ग्रंथों से, कभी कर्मों की छाँव में,
उसका डर दिखाया सबको, भय बाँधा हर पाँव में।
ईश्वर को मानने वाले, फिर डरने क्यों लगे?
जो प्रेम का स्रोत था सदा, उसे रूढ़ियों में जकड़ने लगे।
क्या प्रेम में कोई भय होता? क्या स्नेह में कोई संकोच?
अगर ईश्वर प्रेममय है, तो डर क्यों उसके पास खोज?
मैंने भी ईश्वर को माना, श्रद्धा के दीप जलाए,
पर क्यों उसके दर पर जाकर, मन में संशय आए?
अगर वह मेरा अपना है, तो डरना कैसा इस जग में?
प्रेम से भर दो ईश्वर को, तो भय बचेगा किस हृदय में?
चलो, प्रेम से पूजें ईश्वर को, भय की जंजीरें तोड़ दें,
सच्चे प्रेम की रोशनी में, अब अंधकार का भय छोड़ दें।
रूपेश रंजन...
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