बंसत पंचमी और निज़ामुद्दीन औलिया-अमीर खुसरो...
पीले रंग में रंगी बयार, आई बसंत बहार,
दरगाह में बिखरी खुशबू, खिले प्रेम के गुंजार।
निज़ामुद्दीन के आंगन में, जब छाई थी उदासी,
चाहत के रंग बिखेरने, खुसरो ने राह निकासी।
देखी एक बसंती टोली, गा रही राग सुरीला,
गुंचे, फूल, सजी थी डाली, हर कोई था रंगीला।
खुसरो ने ओढ़ा बसंती चोला, लिया पुष्पों का थाल,
"आज रंग है री माँ" गाकर, कर दिया ग़म को हलाल।
गुरु निज़ाम पे चढ़ी बहारें, छाया उत्सव अपार,
बसंत बनी तबसे दरगाह पर, प्रेम की एक फुहार।
ज्ञान, भक्ति और प्रेम का संगम, यह पर्व हमें सिखाए,
बसंत की ऋतु में हर मन, प्रेम और रंग अपनाए।
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