मेरे पास कलम और पन्ने हैं।

 

तब बहुत ज़्यादा बुरा लगता था,
क्योंकि मैं लिख नहीं पाता था।
घुट-घुट के मरता था,
पर कुछ कर नहीं पाता था।
कुछ कह नहीं पाता था,
मैं लिख नहीं पाता था।

अब थोड़ा ठीक लगता है,
क्योंकि दर्द को लिख लेता हूँ।
पन्नों से दोस्ती हो गई है,
सारे दर्द उनसे ही बाँट लेता हूँ।

शायद इसलिए अब ज़्यादा दर्द सह पाता हूँ,
क्योंकि मैं अब लिख पाता हूँ।
कलम उठाता हूँ,
पन्नों से कह देता हूँ
कि आज मैंने क्या-क्या किया,
और लोगों ने मेरे साथ क्या-क्या किया।

बाँटने से तो दर्द कम होता ही है,
मेरे पास दर्द बाँटने के लिए कोई इंसान तो नहीं।
इतना ही अंतर है—
मेरे पास कलम और पन्ने हैं।


रूपेश रंजन

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