प्रेम ही मेरी प्रकृति है...
प्रेम ही मेरी प्रकृति है
मेरी प्रकृति है प्रेम करना,
मैं बस ऐसा ही हूँ।
इस हृदय की कोमल धड़कन में,
सिर्फ प्रेम ही गूँजता हूँ।
मैं अपनी प्रकृति कैसे बदलूँ?
जो रचा गया उसी रूप में हूँ।
सृष्टि ने मुझमें प्रेम रचा,
तो मैं प्रेम ही में मग्न हूँ।
हो सकता है, जग मुझे ठुकराए,
मेरा हृदय बार-बार टूट जाए।
शायद मुझे अपमान मिले,
और प्रेम का प्रतिदान न आए।
शायद कोई न समझे इस हृदय को,
शायद मैं तन्हा ही रह जाऊँ।
संवेदनाओं के इस अथाह सागर में,
बस अकेला ही बह जाऊँ।
हो सकता है, मेरी आत्मा प्यासी रहे,
प्रेम का स्रोत कभी न बहे।
शरीर थककर छोड़ दे साथ,
मन की पीड़ा कभी न सहे।
पर फिर भी मैं प्रेम करूँगा,
क्योंकि प्रेम ही मेरी रचना है।
अगर यही मेरी नियति है,
तो इसे स्वीकारना ही साधना है।
मैं न तो बदल सकता हूँ इसे,
न ही इसे त्याग सकता हूँ।
प्रेम मेरा स्वभाव है,
इसे कैसे नकार सकता हूँ?
चाहे कोई समझे या न समझे,
मैं प्रेम के गीत ही गाऊँगा।
इस जीवन के अंतिम क्षण तक,
प्रेम के दीप जलाऊँगा।
चाहे इस प्रेम की लौ अकेली हो,
या कोई संग जलने आए।
पर मैं अपनी प्रकृति से न बदलूँगा,
यही सत्य मेरा कहलाए।
तो जो नियति ने लिखा है,
वही सही, वही स्वीकार है।
मैं प्रेम में हूँ, प्रेम मेरा धर्म,
यही मेरा संसार है।
रूपेश रंजन...
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