छूट गया जो अपना था…
छूट गया जो अपना था…
कितना मुश्किल रहा होगा उसके लिए,
जब घर लौटी होगी वो उम्मीद लिए।
आँगन में खिलखिलाहट ढूँढी होगी,
पर हर कोना ख़ामोशियों से घिरी होगी।
भाई की आवाज़ सुनने को दिल किया होगा,
पर दरवाज़े की चुप्पी ने सब कह दिया होगा।
एक कमरा… जो हमेशा खुला रहता था,
आज उसे बंद देखकर दिल घबराया होगा।
हाथ बढ़ाकर किवाड़ धकेला होगा,
अंदर अंधेरे ने जैसे जकड़ लिया होगा।
सांसें अटक गई होंगी, दिल रो पड़ा होगा,
जब देखा होगा भाई को… सन्नाटे में झूलता हुआ।
वो चेहरा जो हंसता था, अब शांति में सोया था,
जो हाथ पकड़ता था, अब लाचार पड़ा था।
पंखे से झूलती उसकी परछाईं कांप रही थी,
जैसे पूछ रही हो—"दीदी, मैं हार गया, क्यों नहीं आई?"
कितना मुश्किल रहा होगा उसके लिए,
एक ही पल में दुनिया उजड़ गई थी।
जो भाई सुबह तक था उसके साथ,
अब उसकी यादें भी लहरों में खो रही थीं।
किसी ने कुछ नहीं कहा होगा,
पर दीवारें सिसक रही होंगी।
माँ कहीं कोने में टूटी पड़ी होगी,
बाबूजी की आँखें सूख चुकी होंगी।
कैसा दर्द था जो कह न सका,
कैसी लड़ाई थी जो लड़ न सका?
इतना भी क्या मुश्किल था ज़िन्दगी में,
जो अपनों को छोड़कर चला गया?
क्या कोई रास्ता नहीं था, कोई सहारा नहीं?
क्या एक बार रोक भी न सकता था हमें?
क्यों सोचा नहीं, माँ-बाप का क्या होगा?
जब उन्हें सबसे ज़्यादा तेरे साथ की ज़रूरत थी।
कितनी बार माँ ने आवाज़ दी होगी,
कितनी बार बहन ने पुकारा होगा।
पर जवाब नहीं आया, न आएगा अब,
क्योंकि वो रिश्ता ही चला गया, जो सबसे प्यारा था।
अब ये कमरा वीरान रहेगा,
यादों की चादर ओढ़े पड़ा रहेगा।
तस्वीर में मुस्कुराता वो चेहरा,
अब सिर्फ धूल से ढंका रहेगा।
जो खेलते थे, जो लड़ते थे,
जो साथ में हर दर्द को सहते थे।
आज सब बिखर गया,
एक चिट्ठी भी न छोड़ी, कुछ कह भी न सका।
कितना मुश्किल रहा होगा उसके लिए,
उस दरवाज़े को फिर से बंद करना,
जिसके पीछे बचपन के सारे सपने दफ्न थे।
वो कमरा, वो भाई, वो आवाज़,
सब एक पल में बीते कल में बदल गया।
और बस एक सवाल छोड़ गया—
"आख़िर क्यों?"
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