प्रेम का स्वरूप...

 

प्रेम का स्वरूप

प्रेम पवित्र, प्रेम अनंत,
हर बंधन से मुक्त, हर सीमा से परे।
न मोह, न इश्क़, न कोई छलावा,
सिर्फ आत्मा का निर्मल स्नेह खरे।

वह न रचता कोई कथा-संसार,
न सीमित शब्दों में करता बयान।
उसका प्रेम है एक ग्रंथ समर्पित,
जिसमें हर अक्षर एक नई पहचान।

सांसारिक नहीं, आत्मिक बंधन,
जिसकी अनुभूति अमृत समान।
नैसर्गिक, अलौकिक, अद्भुत ऐसा,
जैसे सागर में छिपा हो गूढ़ ज्ञान।

उसका विश्वास अडिग, अमिट,
वह देखे मुझे निर्मल प्रकाश।
मेरी बातों में खोजे उत्तर,
हर उलझन का मुझमें निवास।

कभी कृष्ण, कभी राम सा कोमल,
धर्म और प्रेम का वह स्वरूप।
पूजता नहीं, मगर मान देता,
उसकी चाहत में बस मैं अनुरूप।

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