कर्म ही पहचान...

 कर्म ही पहचान


तुमको दया चाहिए,

तुमको सम्मान चाहिए,

पुरुषों को कहाँ दया चाहिए?

पुरुषों को कहाँ सम्मान चाहिए?


पुरुषों ने छीना है,

तो तुम भी छीनो,

मूर्ख की भाँति उम्मीद लगाए बैठे हो

किसी की करुणा के लिए?


बस कर्म करो,

नारी नहीं होकर,

कर्मी बनकर।

परिणाम मिलेगा नारी के नाम पर नहीं,

सफलता के नाम पर।


मैं तो पुरुष हूँ,

अकेले रहता हूँ,

मेरे जीवन में कहाँ कोई स्त्री है?

कोई चाहिए भी नहीं।

तो फिर मेरे ‘तुम’ में क्या अंतर?


सहानुभूति मत माँगो,

कर्म में रत हो।

मैं जो कुछ करता हूँ,

वो खुद के लिए करता हूँ,

ना संसार के लिए,

ना पुरुष जाति के उत्थान के लिए।


इतना ही काफ़ी है,

अगर तुम कर्म के प्रति निष्ठावान हो।

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