मैं तो माँगूँगा भीख वासना के लिए...

 

मैं तो माँगूँगा भीख वासना के लिए

मैं तो माँगूँगा भीख वासना के लिए,
तुम स्वीकारो या न, यह संकोच क्यों?
जब प्रेम की अग्नि में मन जल चुका,
तो तन का समर्पण भी अवरोध क्यों?

स्पर्शों की भाषा अधरों से कहूँ,
या नयनों की गहराइयों में बहूँ?
तुम्हारी सुरभि में मदहोश हो,
श्वासों की तपिश में विलय मैं रहूँ।

प्रेम से परे भी हैं भूखें अनेक,
जो मन की अतल गहराइयों में हैं।
वासना कोई तुच्छ आग्रह नहीं,
यह भी तो प्रेम की छायाएँ हैं।

मैं निष्प्राण होकर समर्पित खड़ा,
तुम्हारे करुण स्नेह की राहों तले,
स्वीकृति या अस्वीकार जो भी मिले,
संपूर्ण समर्पण में डूबा चलूँ।

जब प्रेम की भाषा में देह भी बहे,
तो उस प्रेम को अपवित्र क्यों कहे?
मैं तो माँगूँगा भीख वासना के लिए,
क्योंकि यह भी तो प्रेम की ही छवि है।

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