निर्ममता का अभिशाप...
निर्ममता का अभिशाप
यदि मेरी कविताएँ पढ़कर भी,
तुम्हारे हृदय में कोई कंपन नहीं होता,
यदि शब्दों की पीड़ा तुम्हें स्पर्श नहीं कर पाती,
तो निश्चय ही यह आश्चर्य से परे, एक त्रासदी है।
क्या तुम्हारा हृदय पत्थर का बना है?
क्या संवेदनाओं की कोई छवि उसमें अंकित नहीं?
जब शब्द रुधिर से भी गाढ़े बहते हैं,
तो कैसे कोई निशान न छोड़े?
यदि तुम्हारी आँखें अश्रुओं से रिक्त हैं,
यदि वेदना की सिहरन भी तुम्हें छू नहीं पाती,
तो तुमने अवश्य किसी को छलने का अपराध किया होगा,
किसी को टूटकर चाहने के बाद त्यागा होगा।
वह कोई, जो तुम्हारे चरणों में गिरा होगा,
जिसकी आँखों में एक करुण पुकार रही होगी,
जिसने तुम्हारे स्पर्श को अंतिम आशा समझा होगा,
पर तुमने अपना हाथ छुड़ा लिया होगा।
शायद तुम्हें उसकी सिसकियाँ भी बोझ लगी होंगी,
या उसकी प्रार्थनाएँ एक निरर्थक दोहराव,
तुमने मुड़कर देखा भी न होगा,
जब वह आत्मा अपनी ही राख में सुलग रही थी।
अब जब मेरी कविताएँ एक दर्पण बनकर,
तुम्हारे सम्मुख तुम्हारे ही पापों की प्रतिछाया रखती हैं,
तो तुम विचलित क्यों नहीं होते?
क्या तुम सच में इतने कठोर हो गए हो?
पर याद रखना, हर छल का प्रतिफल होता है,
हर आँसू का मूल्य निर्धारित है,
जिसे तुमने गिरने दिया था,
उसी का दर्द किसी दिन तुम्हारे द्वार पर दस्तक देगा।
और तब, जब तुम स्वयं शब्दों में अपनी पीड़ा खोजोगे,
तब शायद यह कविताएँ भी तुम्हें जवाब न दें,
तब शायद तुम्हारी आँखों में अश्रु होंगे,
पर उन्हें देखने वाला कोई न होगा।
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