रूह का विद्रोह...
रूह का विद्रोह
कितनी बार मेरी रूह ने मेरा साथ त्याग दिया,
जब-जब वो मेरे सम्मुख थी,
यह सोचकर कि कहीं वो मुझे छोड़ न जाए,
मेरा अस्तित्व ही जैसे शून्य हो गया।
जब वो सचमुच चली गई मुझे तजकर,
मेरी रूह ने तब विद्रोह नहीं किया,
पर मैं स्वयं एक निर्जीव प्रतिमा बन गया।
इस निष्प्राण देह से भी,
कई बार मेरी रूह ने नाता तोड़ लिया।
मैं कर भी क्या सकता था?
क्योंकि मेरा होना, मेरा अस्तित्व,
मेरी रूह में नहीं,
बल्कि उसमें था।
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