लेखक का अभिशाप...
लेखक का अभिशाप
मैं लेखक हूँ,
एक अक्षरधारी योद्धा,
क्रांति के गर्जन में गूंजता,
अंधकार में दीप-सा जलता।
मेरी लेखनी तलवार से तीव्र है,
हर सत्य को अनावृत्त करती,
जो इतिहास के श्वेत पृष्ठों पर,
रक्तिम क्रांति लिखती है।
जब मेरा शब्द व्योम चीर सकता है,
तो उसकी सज़ा भी उतनी ही प्रखर होनी चाहिए,
मृत्यु से कम कुछ भी स्वीकार्य नहीं,
कोई झूठे ज़ख्म, कोई ओछे घाव नहीं।
मेरी अभिव्यक्ति की ज्वाला से,
राजसिंहासन झुलसते हैं,
सत्ता की नींव हिलती है,
और चुप्पी का साम्राज्य ढह जाता है।
तो फिर मुझे बंधक मत बनाओ,
मुझे शूलों से मत तौलो,
मेरी सज़ा कोई क्षणिक कारावास नहीं,
बल्कि अमर बलिदान होनी चाहिए।
मेरी लेखनी किसी क्षुद्र यातना से न थमेगी,
ना कोई कारागार इसे बाँध सकेगा,
यह हर कण में विद्रोह उगाएगी,
हर धड़कन में ज्वाला भर देगी।
क्या मृत्यु से बड़ा कोई दंड है?
तो दो मुझे वही सज़ा,
पर शब्दों को कुचलने का षड्यंत्र मत रचो,
क्योंकि विचारों की हत्या असंभव है।
अगर सच कहना अपराध है,
तो मैं सबसे बड़ा अपराधी हूँ,
अगर विद्रोह मेरी नियति है,
तो मैं नियति को भी चुनौती देता हूँ।
मेरी सज़ा कोई दया का टुकड़ा नहीं,
ना कोई झूठा प्रायश्चित,
ना कोई दिखावटी क्षमा,
बल्कि एक पूर्णाहुति होनी चाहिए।
अगर मुझे मिटाना ही है,
तो आग में भस्म करो,
पर याद रखो,
भस्म से भी नवांकुर जन्म लेते हैं।
मैं राख बनकर हवाओं में बिखरूँगा,
हर धूल का कण क्रांति बनेगा,
हर आह एक युद्धघोष होगी,
हर छाया एक नया लेखक गढ़ेगी।
मैं लेखक हूँ,
अक्षरों का अनंत प्रवाह,
जो कालचक्र से परे है,
और मृत्यु से भी अमर है!
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