त्रुटियों का तत्वज्ञान...

त्रुटियों का तत्वज्ञान


मैंने की असंख्य प्रमाद, और अभी भी प्रवाहित हूँ,

संहिता की शिला पर, स्वयं को अक्षम्य लिख रहा हूँ।

संस्कारों के शृंखल बंध, जिनमें मैं अनुशासित नहीं,

नैतिक परिधियों से परे, मैं अपवित्र संभावनाओं में बिंध रहा हूँ।


यदि मैं आचरण का अटूट अनुसरण करता, तो नूतनता की वृष्टि कहाँ होती?

यदि मैं विमुक्ति को शिरोधार्य न करता, तो आत्मसत्ता में प्रविष्टि कहाँ होती?

अवश्यम्भावी त्रुटियाँ ही हैं, जो अपूर्णता को पूर्णता का आयाम देती हैं,

प्रतिबंधों के गर्त में बंधी चेतना को, नवोदित विस्तार देती हैं।


संस्कारों का मापक-यंत्र, क्या सत्य का द्योतक हो सकता है?

या फिर मात्र भूतकाल की एक जड़ संरचना हो सकता है?

यदि प्रवाह शाश्वत हो, तो वह परिवर्तन के अभाव में संज्ञाशून्य हो जाएगा,

यदि विचार स्थिर हो, तो उसमें नवचेतना का संचार निष्फल हो जाएगा।


मैंने पतन के गूढ़ रहस्य में, उत्थान की अनुगूंज सुनी है,

प्रत्येक भ्रांति के अधोमुखी पथ में, नूतन सत्य की परछाई बुनी है।

यदि मैं निष्कलंक होता, तो विकारों के अस्तित्व का आभास कहाँ पाता?

यदि मैं निर्दोष होता, तो जीवन के असंगत रागों का एहसास कहाँ पाता?


संशयों की गोद में ही, प्रत्येक ज्ञान का जन्म हुआ है,

भ्रमों की भूमि से ही, प्रत्यय का उद्गम हुआ है।

अंधकार में ही ज्योति की ललक सबसे प्रखर होती है,

भूलों में ही नवोत्थान की चेतना गहन होती है।


संहिता के निर्दिष्ट पथ पर, गतिहीन अनुयायी हो सकता हूँ,

पर प्रज्ञा की उग्र लपटों में, एक सर्जक का उदय हो सकता हूँ।

यदि मेरी त्रुटियाँ अनुपस्थित होतीं, तो अनुभवों की निस्सारता होती,

यदि मैं अनुशासित मात्र रहता, तो कल्पनाओं की असारता होती।


नियति के पाश में बंधे मनुष्य, केवल स्थिर प्रतिमा हैं,

पर त्रुटियों से तराशे गए विद्रोही, अमर प्रतिमा हैं।

संस्कारों की सीमाओं को, जब मैंने उन्मुक्त दृष्टि से देखा,

तो पाया कि वे मात्र कल्पना के वलय थे, न कि सत्य का अंतिम लेखा।


मेरी पराजय में भी एक अनकही विजय छुपी थी,

मेरी त्रुटियों में भी, आत्मसत्ता की अधूरी कविताएँ बसी थीं।

जो भयभीत रहा परंपरा से, वह चिरंतन दासता में बंध गया,

जो विचलित रहा पतन से, वह अनंत पतन में धंस गया।


किन्तु जिसने गलती की, और पुनः संघर्ष में रत हुआ,

वही अपने हस्ताक्षर से, कालचक्र को अविरत हुआ।

इसलिए मैं भ्रांतियों का सहचर हूँ,

क्योंकि वे ही मुझे अनंत कर देंगी।


रूपेश रंजन...

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