प्रेम और भिक्षा...
प्रेम और भिक्षा
जब भी प्रेम में देह की सीमा पार करना,
आत्मा को साथ लेकर चलना।
यदि मन अटका हो, द्वार झिझकता हो,
तो ठहरो! स्वयं से पूछो—
क्या यह मिलन केवल देह का है
या आत्मा का भी संग है?
अगर न कर सको ऐसा,
तो बुद्ध-सा दानपात्र आगे बढ़ा दो,
निःस्वार्थ, रिक्त, निर्विकार।
और कहो—
"भूखा हूँ, आम्रपाली!
भिक्षा में केवल वासना नहीं,
थोड़ा प्रेम भी दे दो,
थोड़ी करुणा, थोड़ा स्पर्श,
जो देह से परे हो,
जो मन के द्वार भी खोले।"
क्योंकि प्रेम केवल आग नहीं,
जो जलकर राख कर दे—
यह वह दीप है,
जो भीतर तक रोशनी भर दे!
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