मानव का अंतिम लक्ष्य...
मानव का अंतिम लक्ष्य
मानव का अंतिम लक्ष्य प्रेम पाना ही है,
चाहे जैसे भी,
माध्यम अलग हो सकते हैं,
पर लक्ष्य एक ही है।
मुझे मिला,
बहुत मिला,
इतना कि समय नहीं बचा मेरे पास,
संसार से जाने का कभी खेद नहीं होगा मुझे,
न इस पल, न अगले पल।
जब प्रेम ने मुझे भर दिया,
तो शून्यता का अस्तित्व ही मिट गया,
जब हर स्पंदन प्रेम बन गया,
तो जन्म-मरण का बंधन खो गया।
न स्मृतियों में कोई कसक बची,
न भविष्य की कोई चाह,
बस यही पल, यही अनुभव,
बस प्रेम की अमर थाह।
न धूप का डर, न छाँव की आस,
न हार की पीड़ा, न जीत का उल्लास,
सब प्रवाहित हुआ प्रेम के संग,
जैसे गंगा में मिट्टी का रंग।
अब मैं प्रेम हूँ, प्रेम मुझमें,
इस पल में भी, उस पल में भी,
मेरा अस्तित्व प्रेम में विलीन,
न कहीं अंत, न कोई नवीन।
रूपेश रंजन...
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