पहला कष्ट...

 

पहला कष्ट

गहरी निस्तब्धता, भोर उजास,
पर मानव जागा अंधेरी सांस।
उसकी आँखों में नभ था विस्तृत,
पर भीतर कोई पीड़ा थी छिपित।

उसे न ज्ञात क्यों पवन पुकारे,
या क्यों तारे गगन में निहारे।
पर अंतर्मन में उठा विचार,
मृदु फुसफुसाहट, दुःख अपार।

"मैं हूँ," कहा, और हुआ विलग,
प्रकृति की गोद से अलग-थलग।
न पशु ने सोचा, न अश्रु बहाए,
पर मनुज ने ही चैन गँवाए।

नदी बहती, तरु अडिग खड़े,
सूर्य चमके, मेघ घिरे पड़े।
पर बंधन मन में लिपटा था,
जो सत्य प्रकृति में छिपा था।

भूत को देखा, भविष्य को सोचा,
समय ने जैसे साथ न खोया।
जहाँ कभी थी निस्सीम श्वास,
अब वहाँ भय का था वास।

चाहा थामे, सहेजे सब,
पर हर प्रिय एक दिन सोए अब।
कामनाएँ उठीं, बुझी नहीं,
पर संतोष की लौ जली नहीं।

चट्टानें तोड़ी, अग्नि जलाई,
स्वप्नों की सीढ़ी थी बनाई।
पर हर कदम, हर एक विजय,
ले आई पीड़ा और अभिलाषा नयी।

ज्ञान बढ़ा तो सरलता खोई,
अबोध बचपन की रेखा धोई।
वन ज्यों पहले वैसे रहे,
पर मनुज अकेला दुःख सहे।

आसमान में खोजा सत्य महान,
धरती में खोजे ईश्वर विधान।
पर मौन रहा हर एक निशान,
अंदर गूँजी शून्य की तान।

प्यास बढ़ी, मन और तरसा,
पर कुछ भी न आया वापस धरा।
अदृश्य सत्य, मौन कथाएँ,
मानव था शापित खोज में जाए।

पहला कष्ट तन का न था,
न भूख, न पीड़ा, न घाव गहरा।
पर जब जाना वह बंधन में है,
तब छटपटाहट जन्मी मन में।

फिर खोजी राहें, फिर बढ़ा,
अर्थ-अनर्थ की गूंज बढ़ा।
पर खोज की इस अनंत यात्रा में,
उसने बुना ज्ञान अश्रु धारा में।

दुःख ने पहले दिया था दृष्टि,
अंधकार में एक नई सृष्टि।
पीड़ा गहरी, क्षति कठोर,
पर इसी से हुआ मानव का जन्म उजोर।

Comments