मैं ऐसा क्यों हूँ?...
मैं ऐसा क्यों हूँ?
मैं ऐसा क्यों हूँ—
जलधारा सा निरंतर, अविरल प्रवाह,
जिसमें कोई स्थिरता नहीं,
न कोई अवरोध, न कोई पड़ाव।
बूंद-बूंद कर रिसता हूँ,
हर आकार में ढलता हूँ,
कभी समुद्र सा गहरा,
कभी निर्झर सा चंचल बहता हूँ।
कोई बाँध बांधना चाहे तो भी व्यर्थ,
हर प्रयास, बस एक क्षणिक अर्थ।
क्योंकि मैं जल हूँ,
ना थमता, ना बंधता, ना झुकता।
तुम्हें लगता मैं अपरिभाषित हूँ,
मगर तुम नहीं समझ सके—
अगर तुम्हारी अनुभूति भी मेरी तरह होती,
तो तुम्हें ज्ञात होता कि प्रेम में सबकुछ विलीन हो जाता है।
यदि तुम प्रेम करते जैसे मैं करता,
तो तुम भी जल की तरह बहते,
हर बंधन से मुक्त,
हर दीवार से परे।
प्रेम में न कोई परिधि होती,
न कोई दायरा, न कोई किनारा।
यह तो निराकार, असीमित,
निर्विकार और निष्कलंक।
पर तुमने प्रेम को भी सीमाओं में बाँध दिया,
अहंकार की दीवारों में कैद कर दिया।
तुमने उसे स्वाभिमान का नाम दिया,
मगर सच कहूँ, वह मात्र आत्म-मोह था।
प्रेम में ‘मैं’ और ‘तुम’ का भेद कहाँ?
जहाँ समर्पण है, वहाँ स्वाभिमान का क्रोध कहाँ?
जहाँ संवेदनाएँ द्रवित होती हैं,
वहाँ ‘मैं’ और ‘मेरा’ का बोझ कहाँ?
अगर तुम प्रेम करते तो समझते,
कैसे प्रेम आत्मा को द्रवित कर देता है।
कैसे उसमें ‘अहम्’ घुलकर विलुप्त हो जाता है,
कैसे ‘स्वयं’ का अस्तित्व भी जल में मिलकर अदृश्य हो जाता है।
लेकिन तुम ठहरे चट्टान,
स्थिर, कठोर, अचल, अपरिवर्तनीय।
तुमने प्रेम को भी अपने दंभ की शिला बना लिया,
अपने स्वार्थ की नींव में जकड़ लिया।
मैं तरल था, तुमने सहेजा नहीं,
मैं बूँद-बूँद रिसता रहा,
पर तुमने अपने कठोर अस्तित्व में
मेरी हर अनुभूति को अस्वीकार कर दिया।
तुमने देखा नहीं कि मैं जल था,
हर रंग में समाहित होने को तत्पर।
तुम्हें समझना होता तो समझते,
कि मैं बहने के लिए बना हूँ, ठहरने के लिए नहीं।
प्रेम बहता है, संकुचित नहीं होता,
उसमें न तो ‘मैं’ रहता है,
न आत्ममुग्धता की कठोरता।
वह तो मिट्टी को भी सजीव बना देता है।
काश तुम प्रेम को समझते,
तो तुम्हें ज्ञात होता—
कैसे जल जीवन है,
कैसे प्रेम मोक्ष है।
पर तुमने प्रेम को एक वस्त्र बना लिया,
जिसे अवसरानुसार बदला जा सके।
तुमने उसे शब्दों में सीमित कर दिया,
जबकि वह भावनाओं में अनंत था।
मैं ऐसा ही हूँ—
हर रूप में, हर रंग में, हर धारा में,
स्वयं को खोकर भी पूर्ण,
स्वयं को बहाकर भी निर्मल।
तुम समझ सकते थे मुझे,
अगर तुम भी प्रेम करते जैसे मैं करता,
अगर तुमने जाना होता—
कैसे प्रेम में सब कुछ घुल जाता है…
अहंकार, आत्ममुग्धता,
और वह संकीर्ण स्वाभिमान,
जो प्रेम के स्थान पर
सिर्फ अकेलापन छोड़ जाता है…
रूपेश रंजन...
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