हर मुलाक़ात का अंज़ाम जुदाई क्यों है...

 

हर मुलाक़ात का अंज़ाम जुदाई क्यों है

कितना आगे आ गया हूँ,
पर जाना भी होगा एक दिन,
सब वैसे ही रहेगा,
मैं नहीं रहूँगा,
यही ख़याल आता है बार-बार।

जिसे चाहा था टूट कर,
अब देख भी नहीं पाऊँगा एक भी बार,
बचपन की गलियाँ, वो हँसी की बातें,
बस यादों में रह जाएँगी सारी रातें।

मैं भी चला जाऊँगा एक दिन,
हर चीज़ को देखकर यही लगता है,
कितने समय से साथ हूँ,
पर एक दिन मैं भी चला जाऊँगा,
सब कुछ छोड़कर...

फिर कोई आएगा मेरी जगह,
मेरी हँसी, मेरे आँसू, सब भुला दिए जाएँगे,
बस इक नाम, इक निशान बनकर,
मैं भी कहीं खो जाऊँगा...

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