अंतर रहेगा...

 अंतर रहेगा


समंदर और नदियाँ एक नहीं हो सकती,

मिलकर भी अपनी पहचान नहीं खो सकती।

नदी बहती है समर्पण की धारा में,

समंदर ठहरा है अपनी ही जिद्द में।


एक देता है, एक समेटता है,

एक बहता है, एक ठहरता है।

अंतर सदा था, सदा रहेगा,

कोई सेतु इसे मिटा न सकेगा।


नदी अपनी मर्यादा में चलती,

समंदर की लहरों से घबराती है,

पर जब गिरती है उसकी गोद में,

तो अपनी पहचान ही खो जाती है।


चाहे जितना भी मिलन रचाया जाए,

चाहे जितनी भी कोशिश कर ली जाए,

नदी, समंदर होकर भी नदी रहेगी,

समंदर, समंदर की तरह अडिग रहेगा।


मैं भी तुमसे प्रेम करता रहूँगा,

हर लहर संग तुम्हें पुकारता रहूँगा।

पर तुम सदा असमर्थ रहोगी,

निर्णयों की धारा में खोती रहोगी।


तुम नदी हो, जो बहती रहती हो,

कभी किनारे से टकराती रहती हो।

मैं समंदर हूँ, जो हर बार

तुम्हें बाहों में समेटना चाहता है।


पर यह प्रेम भी समर्पण नहीं,

यह मिलन भी एक बंधन नहीं।

क्योंकि जितनी भी कोशिश कर ली जाए,

यह अंतर कभी मिट नहीं पाए।


तुम्हारी उलझनें लहरों-सी मचलती हैं,

मैं उन्हें सहता हूँ, हर बार संभलता हूँ।

पर तुम किनारे पर खड़ी रह जाती हो,

हर बार नया प्रश्न लिए चली आती हो।


तुम निर्णय नहीं ले पाती,

नदी की तरह बहती जाती,

और मैं समंदर होकर भी,

हर बार तुम्हें समेटने चला आता।


अंतर रहेगा, यह सत्य है,

यह मिलन भी कहीं अधूरा है।

नदी और समंदर की कहानी,

एक प्रेम, पर फिर भी दूरी बनी रही।



Comments