"होली किसके लिए?"...

 

"होली किसके लिए?"

होली किसके लिए?
माँ-बाप तो आज भी रो रहे होंगे,
अपने बच्चे के ख़ून से होली खेली गई,
और क़ातिल हम हैं,
बेशर्मों की तरह ख़ून से सने हाथ लिए,
किसी के बच्चे की जान लेकर,
अपने घर में रंगों की होली खेलते हैं।

हम भूल जाते हैं,
कितनी जल्दी, कितनी बेशर्मी से,
कुछ दिन पहले, एक छोटी सी बच्ची,
जिसके ख़ून से भी होली खेली गई थी,
पर सब भूल गए हैं,
आज सब खुश हैं,
क्योंकि आज उनकी होली है।
जबकि किसी का ख़ून, किसी की रूह,
रंगों से भीगी थी।
कहते हैं, "होली तो रंगों की होती है,"
पर हमने कभी ना समझा,
रंग किसके लिए हैं?

वो डॉक्टर, वो लड़की,
कोलकाता की गलियों में,
जिसने अपनी ज़िंदगी को,
बचपन से लेकर ख्वाबों तक,
अपने सपनों में सजाया था,
आज वो ख्वाब चकनाचूर हैं,
उसकी ज़िंदगी का रंग,
उसके ख़ून से ढल गया,
जिसमें हमारी ख़ामोशी,
उसकी चीखों को दबा गई।

हमने रंग दिखाए,
पर वो रंग कभी सच्चे नहीं थे,
जो हमने खेलकर अपने घर में सजाए।
वो रंग उस लड़की की आँखों के आँसू से आए थे,
जिसे हमने छुपा दिया था,
क्योंकि उसके चेहरे पर खौफ था,
और हमने उस खौफ को नज़रअंदाज़ किया।

जब तक हम अपने रंगों से खेल रहे थे,
एक माँ के आँसू बह रहे थे,
क्योंकि उसकी बेटी को हमने छीन लिया।
और हमने सोचा कि अपनी होली से सब कुछ धुल जाएगा।
क्या हम सच में ऐसा सोचते हैं?
जब तक हम अपने रंगों में डूबकर खुश हो रहे थे,
उस माँ के दिल में दर्द की एक और गहराई थी,
जो हम कभी समझ नहीं सकते।
उसकी रूह के अंदर जो बेचैनी थी,
वो कभी ना जाने।

होली किसके लिए है?
रंग किसके लिए हैं?
हमने कभी ना समझा,
कभी ना देखा,
क्योंकि हमने अपने रंगों को अपने घर में सजा दिया,
और दूसरे के ख़ून से खेलकर,
ज़िंदगी को अपने रंगों से रंग दिया।
जबकि किसी की रूह का ख़ून,
हमारी खुशियों के नीचे दबा पड़ा था।

माँ-बाप तो आज भी रो रहे होंगे,
और हम खुश हैं अपने रंगों में।
हम भूल जाते हैं,
कि कुछ दिन पहले किसी के ख़ून से होली खेली गई थी।
और अब तक उसकी रूह का दर्द,
हमारे रंगों के नीचे छुपा हुआ है।

कुछ तो बदलना चाहिए,
कुछ तो बदलना चाहिए,
क्योंकि हमारे रंग,
उन्होंने कभी किसी की रूह को नहीं समझा।

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