खून की स्याही से मत लिखो...
खून की स्याही से मत लिखो
खून की स्याही से मत लिखो,
वरना खुद ही मिट जाओगे।
बेहतर है उन सड़कों से लिखो,
जहाँ लहू के धब्बे पाओगे।
बहुत बह चुका ये लाल रंग,
कितनी चीखें समा गईं दंग।
धर्म, अभिमान, सत्ता, युद्ध,
सबने छीने कितने ही सुत।
धरती ने पिया ये बहता लहू,
पर तृप्त नहीं, नहीं रुका दूःख।
तलवारें चमकीं, तोपें गरजीं,
शांति फिर भी दूर ही सरकी।
बाप गिरे, माँ रोती रह गई,
बचपन की हर हँसी बह गई।
इतिहास दोहराया बारंबार,
पर कौन सुने लाशों का पुकार?
नाम पत्थरों पर लिखे गए,
पर यादों में धुंधले दिखे गए।
वीर कहे या मूर्ख कहाओ,
क्या मिला? बस मौत ही पाओ।
लहू से लिखा, पर कौन पढ़े?
अंधे लोभ में सब ही अड़े।
सौ युद्ध, हजारों कब्रें बनीं,
पर इंसानियत फिर भी ना जगी।
अपने लहू से मत लिखो,
वरना बेड़ी खुद ही गढ़ लोगे।
बेहतर है उन कत्लगाहों से लिखो,
जहाँ चीत्कार के साए लोगे।
लिखो उस घर की सूनी साँझ,
जहाँ बेटा लौट ना पाया आज।
लिखो उन हाथों की हिचक,
जो तलवार थामते ही थर्राए।
शब्द तुम्हारे हो निसंग युद्ध,
एक ज्वाला बन कर जलते क्रुद्ध।
लिखो जहाँ नफ़रत के बीज थे बोए,
अब वहाँ प्रेम के फूल हों रोए।
ना कोई राजा, ना कोई देश,
खून बहाने का ना कोई आदेश।
अब और धरती रक्त ना पीए,
स्याही से लिखो, रक्त ना गिरे।
खून की स्याही से मत लिखो,
वरना खुद ही मिट जाओगे।
पर उस रक्त से जरूर लिखो,
जो सदियों से चीखता आया है।
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